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________________ सामाचाराधिकारः] [१३७ परिक्वंति–परीक्षन्ते गवेषयन्ति । परस्परं त्रयोदशविधकरण चरणं आगन्तुकवास्तव्याः परीक्षन्ते काभिः कृत्वा? परस्परं दर्शनप्रतिदर्शनक्रियाभिः किहेतोरवबोधार्थमिति ॥१६३। केषु प्रदशेषु परीक्षन्ते तत आह आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे । सज्झाएगविहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति ॥१६४॥ आवासयठाणादिसु-आवश्यकस्थानादिषु षडावश्यकक्रियाकायोत्सर्गादिषु आदिशब्दाद्यद्यपि शेषस्य संग्रहः तथापि स्पष्टार्थमुच्यते। पडिलेहणं--प्रतिलेखनं चक्षुरिंद्रियपिच्छिकादिभिस्तात्पर्य। वयणं-वचनं । गहणं-ग्रहणं । णिक्खेवो--निक्षेप एतेषां द्वन्द्वः प्रतिलेखनवचनग्रहण निक्षेपेषु। सज्झाये-स्वाध्याये। एगविहारे--एकाकिनो गमनागमने। भिक्खग्गहणे-भिक्षाग्रहणे चर्यामार्गे। परिच्छति-परीक्षन्तेऽन्वेषयन्ति ॥१६४॥ परीक्ष्यागन्तुको यत्करोति तदर्थमाह विस्समिदो तदिवसं मीमंसित्ता णिवेदयदि गणिणे। विणएणागमकज्जं बिदिए तदिए व दिवसम्मि ॥१६॥ विस्समिदो-विश्रान्तः सन् विश्रम्य पथश्रमं त्यक्त्वा । तदिवसं-तस्मिन्वा दिने तदिवसं विश्रम्य गमयित्वा । मीमंसित्ता-मीमांसित्वा परीक्ष्य तच्छुद्धावरणं ज्ञात्वा । णिवेदयइ-निवेदयति प्रतिबोध अतिथि मुनि संघस्थ मुनियों की क्रियाओं को देखकर उनके द्वारा उनकी क्रिया और चारित्र का ज्ञान करते हैं और संघस्थ मुनि आगन्तुक की सभी क्रियाओं को देखते हुए उनके चारित्र आदि की जानकारी लेते हैं। किन-किन स्थानों में परीक्षा करते हैं ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-आवश्यक क्रिया के स्थान आदि में, प्रतिलेखन करने, बोलने और उठाने धरने में, स्वाध्याय में, एकाकी गमन में और आहारग्रहण में परीक्षा करते हैं ।।१६४॥ प्राचारवृत्ति-छह आवश्यक क्रिया आदि के कायोत्सर्ग आदि प्रसंगों में, किसी वस्तु को चक्षु इन्द्रिय से देखकर पुनः पिच्छिका से परिमार्जन कर ग्रहण करते हैं या नहीं ऐसी प्रतिलेखन क्रिया में, वचन बोलने में और किसी वस्तु के प्रतिलेखनपुर्वक धरने या उठाने में, स्वाध्याय क्रिया में, एकाकी गमन-आगमन करने में और चर्या के मार्ग में, ये साधु आपस में एक-दूसरे की परीक्षा करते हैं । अर्थात् इनकी क्रियाएँ आगमोक्त हैं या नहीं ऐसा देखते हैं। परीक्षा करके आगन्तुक मुनि जो कुछ करता है उसे बताते हैं--- गाथार्थ-आगन्तुक मुनि उस दिन विश्रांति लेकर और परीक्षा करके विनयपूर्वक अपने आने के कार्य को दूसरे या तीसरे दिन आचार्य के पास निवेदित करता है ॥१६॥ प्राचारवृत्ति-जिस दिन आए हैं उस दिन मार्ग के श्रम को दूर करके विश्रांति में बिताकर पुनः आपस में परीक्षा करके आगन्तुक मुनि इस संघ के आचार्यादि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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