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________________ सामाचाराधिकारः] [१३५ सागरः समुद्रः । क्षमया क्षितिः सौम्येन शशी निर्मलत्वेन सागरोऽतस्तैः। सरिसो-सदशः समः क्षितिशशिसागरसदृशः । एवंगुणविशिष्टो य आचार्यस्तमाचार्यम। कमेण-क्रमेण न्यायेनागमोक्तेन । सो दु–स तु शिष्यः । संपत्तो-संप्राप्तः प्राप्तवानिति ॥१५॥ तस्यागतस्याचार्यादयः किं कुर्वन्तीत्याह पाएसं एज्जंतं सहसा दळूण संजदा सव्वे । वच्छल्लाणासंगहपणमणहेदु समुट्ठति ॥१६०॥ आएसं-- आगतं पादोष्णं प्रार्णक 'आयस्यायासं कृत्वा वा । एजंतं-आगच्छन्तं । सहसातत्क्षणादेव। दण-दृष्ट्वा। संजदा--संयताः । सवे-सर्वेऽपि । समदन्ति-समुत्तिष्ठते ऊर्ध्वज्ञवो भवन्ति । किहेतोरित्याह--वच्छल्ल-वात्सल्यनिमित्तं । आणा--सर्वज्ञाज्ञापालनकारणं। संगह-संग्रह आत्मीयकरणार्थ । पणमणहेदू-प्रणमनहेतोश्च ।।१६०॥ पुनरपि पच्चुग्गमणं किच्चा सत्तपदं अण्णमण्णपणमं च । पाहुणकरणीयकदे तिरयणसंपुच्छणं कुज्जा ॥१६१॥ पच्चुग्गमणं किच्चा-प्रत्युद्गमनं कृत्वा । सत्तपदं-सप्तपदं यथा भवति । अण्णमण्णपणमंचअन्योऽन्यप्रणामं च परस्परवन्दनाप्रतिवन्दने च । ततः पाहणकरणीयकदे-पादोप्णस्य यत्कर्तव्यं तस्मिन् कृते प्रतिपादिते सति पश्चात् । तिरयणसंपुच्छणं--त्रिरत्नसंप्रश्नं सम्यग्दर्शनशानचारित्रसंत्रश्नं । कुज्जाकुर्यात्करोतु ॥१६॥ इन गुण विशिष्ट आचार्य को वह मुनि आगम में कथित प्रकार से प्राप्त करता है। अर्थात उपर्युक्त गुणसमन्वित के पास वह मुनि पहुँच जाता है। इस आगत भुनि के लिए आचार्य आदि क्या करते हैं ? सो कहते हैं गाथार्थ प्रयास से आते हुए मुनि को देखकर सभी साधु वात्सल्य, जिन आज्ञा, उसका संग्रह और उसे प्रणाम करने के लिए तत्काल ही उठकर खड़े हो जाते हैं ॥१६॥ __आचारवृत्ति-आयासपूर्वक–पर संघ से प्रयास कर आते हुए आगन्तुक मुनि को देखकर संघ के सभी मुनि उठकर खड़े हो जाते हैं। किसलिए ? मुनि के प्रति वात्सल्य के लिए, सर्वज्ञदेव की आज्ञा पालन करने के लिए, आगंतुक साधु को अपनाने के लिए, और उनको प्रणाम करने के लिए वे संयत तत्क्षण खड़े हो जाते हैं । पुनरपि वास्तव्य साधु क्या करें? गाथार्थ-वे मुनि सात कदम आगे जाकर परस्पर में प्रणाम करके आगन्तुक के प्रति करने योग्य कर्तव्य के लिए उनसे रत्नत्रय की कुशलता पूछे ॥१६१॥ प्राचारवृत्ति-उठकर खड़े होकर ये संयत सात कदम आगे बढ़कर आपस में वन्दना प्रतिवन्दना करें। पुनः आये हुए अतिथि के प्रति जो कर्तव्य है उसको करने के अनन्तर उनसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय का कुशल प्रश्न करें। १. क आशय्यावास। २ क ग्रहमात्मी।. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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