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________________ १३४] [मूलाचार संग्रहः दत्तदीक्षस्य शास्त्रादिभिः संस्करणमनुग्रहस्तयोः कर्तव्ये ताभ्यां वा कुशलो निपुणः । सुत्तत्यविसारओसूत्रं चार्थश्च सूत्राथौं तयोस्ताभ्यां वा विशारदोऽवबोधको विस्तारको वा सूत्रार्थविशारदः । पहिदकित्तीप्रख्यातकीर्तिः । किरियाचरणसुजुत्तो-क्रिया त्रयोदशप्रकारा पंचनमस्कारावश्यकासिकानिषेधिकाभेदात् । आचरणमपि-त्रयोदशविध पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिविकल्पात् । तयोस्ताभ्यां वा सुयुक्तः आसक्तः क्रियाचरणसूयुक्तः । गाहयं-ग्राह्य। आवेज्जं-आदेयं । ग्राह्य वचनं यस्यासौ ग्राह्यादेयवचनः । उक्तमात्रस्य ग्रहणं ग्राह्य एवमेवैतदित्यनेन भावेन ग्रहणं, आदेयं प्रमाणीभूतम् ॥१५८।। पुनरपि गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणासोलो। खिदिससिसायरसरसो कमेण तं सो दु संपत्तो ॥१५॥ गंभीरो—अक्षोभ्यो गुणैरगाधः । वुद्धरिसो-दुःखेन धृष्यत इति दुर्धर्षः प्रवादिभिरकृतपरिभवः । सरो-शूरः शौर्योपेत: समर्थः । धम्मप्पहावणासीलो-धर्मश्च प्रभावना च धर्मस्य वा प्रभावना तयोस्ताभ्यां वा शीलं तात्पर्येण वृत्तिर्यस्यासौ धर्मप्रभावनाशीलः । खिदि-क्षितिः पृथिवी, ससि-शशी चन्द्रमाः, सायर बनाना संग्रह है और जिन्हें दीक्षा आदि दे चुके हैं ऐसे शिष्यों का शास्त्रादि के द्वारा संस्कार करना अनुग्रह है अर्थात् दीक्षा आदि देकर शिष्यों को संघ में एकत्रित करना संग्रह है और पुनः उन्हें पढ़ा लिखाकर योग्य बनाना अनुग्रह है । इन संग्रह और अनुग्रह के कार्य में जो कुशल हैं, निपुण हैं वे 'संग्रहानुग्रहकुशल' कहलाते हैं । जो सूत्र और अर्थ में विशारद हैं, उनको समझाने वाले हैं अथवा उन सूत्र और अर्थ का विस्तार से प्रतिपादन करनेवाले हैं वे 'सूत्रार्थविशारद' कहलाते हैं। जिनकी कीत्ति सर्वत्र फैल रही है, जो पाँच नमस्कार, छह आवश्यक, आसिका और निषेधिका-इन तेरह प्रकार की क्रियाओं में तथा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र में सम्यक् प्रकार से लगे हुए हैं, आसक्त हैं तथा जिनके वचन ग्राह्य और आदेय हैं, अर्थात् उक्त-कथित मात्र को ग्रहण करना ग्राह्य है जैसे कि गुरु ने कुछ कहा तो 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार के भाव से उन वचनों को ग्रहण करना ग्राह्य है और आदेय प्रमाणीभूत वचन को आदेय कहते हैं। जिनके वचन ग्राह्य और आदेय हैं ऐसे उपयुक्त सभी गुणों से समन्वित ही आचार्य होते हैं। पुनरपि उनमें क्या क्या गुण होते हैं ? गाथार्थ-जो गंभीर हैं, दुर्धर्ष हैं, शूर हैं और धर्म की प्रभावना करनेवाले हैं, भूमि, चन्द्र और समुद्र के गुणों के सदृश हैं इन गुण विशिष्ट आचार्य को वह मुनि क्रम से प्राप्त करता है ॥१५॥ आचारवृत्ति-जो क्षुभित नहीं होने से अक्षोभ्य हैं.और गुणों से अगाध हैं वे गंभीर वाहलाते हैं। जिनका प्रवादियों के द्वारा परिभव-तिरस्क नहीं किया जा सकता है वे दुर्धर्ष कहलाते हैं। शौर्य गुण से सहित अर्थात् समर्थ को शूर कहते हैं। जो गम्भीर हैं, प्रवादियों से अजेय हैं, समर्थ हैं और धर्म की प्रभावना करने का ही जिनका स्वभाव है, जो क्षमागुण में पृथ्वी के सदृश हैं, सौम्य गुण से चन्द्रमा के सदृश और निर्मलता गुण से समुद्र के समान हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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