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________________ सामाचाराधिकारः] [१३३ पालकोगणपरिरक्षकश्च । मुणेयवो-मन्तव्यो ज्ञातव्यः । मन्तब्यशब्दः सर्वत्र संबंधनीयः । यत्र चैते पंचाधारा: सन्ति तत्र वासः कर्तव्य इति शेषः ॥१५६॥ अथ तेन गच्छता यद्यन्तराले किंचिल्लब्धं पुस्तकादिकं तस्य कोऽर्ह इत्याह जंतेणंतरलद्धसच्चित्ताचित्तमिस्सयं दव्वं । तस्स य सो आइरियो अरिहदि एवंगुणो सोवि ॥१५७॥ जंतेण-यत्तेन' । अंतरलद्ध-अन्तराले लब्धं प्राप्तं । सचित्ताचित्तमिस्सयं बव्वं-राचित्ताचित्तमिश्रकं द्रव्यं सचित्तं छात्रादिकं, अचित्तं पुस्तकादिकं, मिश्रं पुस्तकादिसमन्वितं जीवद्रव्यं । तस्स य-तस्य च । सो आयरिओ-स आचार्यः । अरिहदि--अर्हः । अथवा तद्रव्यं आचार्योऽहति । सचित्ताचित्तमिश्रकं द्रव्यं यत्तेनान्तराले लब्धं तस्य स आचार्योऽर्होऽर्हति वा तद्रव्यमिति वा आचार्योऽपि कथं विशिष्ट: एवंगणो सोविएवंगुणः सोऽपि। कथंगुणोत आह संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारो पहियकित्ती । किरिपाचरणसुजुत्तो गाहुय प्रादेज्जवयणो य ॥१५८॥ संगहणुग्गहकुसलो-संग्रहणं संग्रहः, अनुग्रहणमनुग्रहः, कोऽनयोर्भेदो दीक्षादिदानेनात्मीयकरणं करनेवाले को गणधर कहते हैं, ऐसा जानना चाहिए। जिस संघ में ये पाँच आधार रहते हैं उसी संघ में निवास करना चाहिए। विहार करते हुए मार्ग के मध्य जो कुछ भी पुस्तक या शिष्य आदि मिलते हैं उनको ग्रहण करने के लिए कौन योग्य हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर बताते हैं गाथार्थ-उस मुनि ने सचित, अचित्त अथवा मिथ ऐसा द्रव्य जो कुछ भी मार्ग के मध्य प्राप्त किया है उसके ग्रहण करने के लिए वह आचार्य योग्य होता है। वह आचार्य भी आगे कहे हुए गुणों से विशिट होना चाहिए ।।१५७।। प्राचारवृत्ति-उस मुनि के विहार करते हुए मार्ग के गाँवों में जो कुछ भी द्रव्य सचित्त-छात्र आदि, अचित्त-पुस्तक आदि और मिश्र-पुस्तक आदि से सहित शिष्य आदि मिलते हैं उन सब द्रव्य का स्वामी वह आचार्य होता है। आचार्य भी कैसे होना चाहिए ? वह आचार्य भी आगे कहे जानेवाले गुणों से समन्वित होना चाहिए। वह आचार्य किन गुणों से युक्त होना चाहिए ? सो ही कहते हैं गाथार्थ---वह आचार्य संग्रह और अनुग्रह में कुशल, सूत्र के अर्थ में विशारद, कीत्ति से प्रसिद्धि कोप्राप्त, क्रिया और चरित्र में तत्पर और ग्रहण करने योग्य तथा उपादेयवचनबोलनेवाला होता है ॥१५८॥ __ आचारवृत्ति-संग्रह और अनुग्रह में क्या अन्तर है ? दीक्षा आदि देकर अपना १. क यत्नेन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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