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संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकारः ]
जन्ममरणान्तकं । छिदि - विदारय । शरीरतश्च ममत्वं छिधि । शरीरे सति यतः सर्वमेतदिति ।
त्रीणि प्रतिक्रमणानि आराधनायामुक्तानि तान्यत्रापि संक्षिप्ते काले सम्भवन्तीत्याह
पढमं सव्वदिचार बिदियं तिविहं भवे पडिक्कमणं । पाणस्स परिच्चयणं जावज्जीवायमुत्तमट्ठ च ॥१२०॥
क्रमप्रतिपादनार्थं चैतत् । पढमं - प्रथमं । सव्वदिचारं - सर्वातिचारस्य तपःकालमाश्रित्य दोषविधानस्य । विदियं - द्वितीयं । तिविहं— त्रिविधाहारस्य । भवे - भवेत् । परिक्कमणं - प्रतिक्रमणं । परिहरणं । पाणस्स—पानकस्य । परिच्चयणं - परित्यजनं । यावज्जीवाय - यावज्जीवं । उत्तम य— उत्तमार्थं च तन्मोक्षनिमित्तमित्यर्थः । प्रथमं तावत्सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणं, द्वितीयं प्रतिक्रमणं त्रिविधाहारस्य, तृतीयमुत्तमार्थं पानकस्य परित्यजनं यावज्जीवं चेति तस्मिन् काले त्रिविधं प्रतिक्रमणमेव न केवलं किन्तु योगेन्द्रिय
करो और शरीर-ममत्व को भी छोड़ो, क्योंकि शरीर के होने पर ही ये सब जन्म-मरण आदि दुःख हैं ।
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आराधना में तीन ही प्रतिक्रमण कहे गये हैं । अकस्मात् होनेवाले मरण के समय सम्भव उन्हीं को यहाँ पर भी संक्षिप्त से कहते हैं
गाथार्थ- पहला सर्वातिचार प्रतिक्रमण है । दूसरा त्रिविध आहारत्याग प्रतिक्रमण है । यावज्जीवन पानक आहार का त्यागना यह उत्तमार्थ नाम का तीसरा प्रतिक्रमण होता है ॥१२०॥
आचारवृत्ति-क्रमको बतलाने के लिए यह गाथा है । दीक्षाकाल का आश्रय लेकर आज तक जो भी दोष हुए हैं उन्हें सर्वातिचार कहा गया है । सल्लेखना ग्रहण करके यह क्षपक पहले सर्वातिचार प्रतिक्रमण करता है । पुनः तीन प्रकार के आहार का त्याग करना द्वितीय प्रतिक्रमण है और अन्त में यावज्जीवन मोक्ष के लिए पानक वस्तु का भी त्याग कर देना सो उत्तमार्थ नामक तृतीय प्रतिक्रमण कहलाता है ।
अर्थात् प्रथम सर्वातिचार प्रतिक्रमण, द्वितीय त्रिविधाहार का प्रतिक्रमण और तृतीय
* फलटन से प्रकाशित प्रति में निम्नलिखित गाथा अधिक है
सव्वो गुणगणणिलओ मोक्खसुहे सिध हेदु ।
सव्वो चाउव्वण्णो ममापराधं ॥५॥
अर्थ -- जब यह आत्मा सर्वगुणों का घर हो जाता है तव वह शीघ्र ही मोक्षसुख का हेतु हो जाता है, उसे रत्नत्रय की प्राप्ति हो जाती है । यह चतुवर्ण संघ मेरे आज तक हुए अपराधों को क्षमा करे ऐसी प्रार्थना करता है ।
नोट- फलटन से प्रकाशित मूलाचार के हिन्दीकार पं० जिनदास फडकुले लिखते हैं: हमें जो हस्तलिखित प्रति मिली है उसमें इस गाथा का 'सब्वो गुणगगणिलओ' इतना ही चरण दिया गया है । परन्तु कन्नड़ - टीका में जो और भी गाथा के पद लिखे हैं उनको जोड़कर गाथा पूर्ण करने का प्रयत्न यथामति किया है तो भी गाथा उसके लक्षण के अनुसार नहीं हुई है।
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