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मूलाचारे इयं' च व्याख्यातार्था गाथेति । यतः एक पंडितमरणं जातिशतानि बहूनि छिनत्ति येन च मरणेन न पुनम्रियते किन्तु सुमृतं भवति पुनर्नोत्पद्यते तन्मरणमनुष्ठेयमिति ।
मरणकाले समाधानार्थमाह
एगम्हि य भवगहणे समाहिमरणं लहिज्ज जदि जीवो।
सत्तट्ठभवग्गहणे णिव्वाणमणुत्तरं लहदि ॥११॥
एकस्मिन् भवग्रहणे समाधिमरणं यदि लभते जीवस्ततः सप्ताष्टभवग्रहणेषु व्यतीतषु निश्चयेन निर्वाणमनुत्तरं लभते यतस्ततः समाधिमरणमनुष्ठीयते इति । शरीरे सति जन्मादीनि दुःखानि यतस्ततः सुमरणेन शरीरत्यागः कर्तव्यः । .
कानि जन्मादीनि दुःखानीत्याह
णत्थि भयं मरणसम जम्मणसमयं ण विज्जदे दुख ।
जम्मणमरणादक छिदि मत्ति सरीरादो ॥११६॥ मरणसम-मृत्युमदर्श भयं जीवस्य नान्यत्, जन्मनोत्पत्त्या समकं च दुःखं च न विद्यते। यतोऽतो
इसलिए ऐसा मरण प्राप्त करना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जावे ॥११७॥
प्राचारवृत्ति-इस गाथा का अर्थ पहले किया जा चुका है । जिस कारण एक पण्डितमरण अनेक प्रकार के सैकड़ों भवों को नष्ट कर देता है और जिस मरण के द्वारा मरण प्राप्त करने से पुनः मरण नहीं होता है किन्तु सुमरण हो जाता है अर्थात् पुनः जन्म ही नहीं होता है उस पण्डितमरण का ही अनुष्ठान करना चाहिए।
मरणकाल में समाधानी करते हुए आचार्य कहते हैं
गाथार्थ-यदि जीव एक भव में समाधिमरण को प्राप्त कर लेता है तो वह सात या आठ भव लेकर पुनः सर्वश्रेष्ठ निर्वाण को प्राप्त कर लेता है ।।११।।
प्राचारवत्ति—एक भव में समाधिमरण के लाभ से यह जीव अधिक से अधिक सात या आठ भव में नियम से मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इसीलिए समाधिमरण का अनुष्ठान करना चाहिए। क्योंकि शरीर के होने पर ही जन्म आदि दुःख होते हैं इसीलिए सुमरण से ही शरीर का त्याग करना चाहिए।
जन्म आदि दुःख क्या हैं ? सो बताते हैं
गाथार्थ-मरण के समान अन्य कोई भय नहीं है और जन्म के समान अन्य कोई दुःख नहीं है अतः जन्म-मरण के कट में निमित्त ऐसे शरीर के ममत्व को छोड़ो ॥११॥
प्राचारवृत्ति-इस जीव के लिए मरण के सदृश तो कोई भयकारी नहीं है, और जन्म लेते समय के सदृश अन्य कोई दुःख नहीं है। इसीलिए जन्म तथा मरण के आतंक का छेदन
१. यह गाथा इसी ग्रन्थ में क्रमांक ७७ पर आ चुकी है। २. देखें गाथा ६७
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