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________________ संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकारः] जम्मालीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं । तं सव्वजीवसरणं णंददु जिणसासणं सुइरं ॥११॥ जंयत् । आलीणा-आलीना आश्रिताः । जीवा:-प्राणिनः । तरंति-प्लवते पारं गच्छति। संसारसायरं--संसरणं संसारः स एव सागर: समुद्रः संसारसागरस्तं । अणंतं न विद्यतेऽन्तो यस्यासौ अनन्तस्तं अपर्यन्तं। तं-तत् । सम्वजीवसरणं सर्वे च ते जीवाश्च सर्वजीवास्तेषां शरणं सर्वजीवशरणं । णंदनन्दतु वृद्धि गच्छतु । जिणसासणं-जिनशासनं । सुइरं-सुचिरं सर्वकालं। यज्जिनशासनमाश्रिताः जीवाः संसारसागरं तरन्ति तत्सर्वजीवशरणं नन्दतु सर्वकालं, यदनुष्ठानान्मुक्तिर्भवति तस्यैव नमस्कारकरणं योग्यमिति ॥११॥ आराधनाफलार्थमाह जा गदी अरहताणं णिद्विदट्ठाणं च जा गदी। जा गदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा ॥११॥ व्याख्यातार्था गाथेयं । अर्हतां च या गतिः निष्ठितार्थानां वीतमोहानां च या गतिः सा मे भवतु सर्वदा नान्यद्याचेऽहमिति । सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा, चतुर्विधाहारं च परित्यज्य जिनं हृदये कृत्वा किमर्थं म्रियते चेदतः प्राह एगं पंडियमरणं छिदइ जाईसयाणि बहुगाणि ॥ तं मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि ॥११७॥ गाथार्थ-जिसका प्राश्रय लेकर जीव अनन्त संसार-समुद्र को पार कर लेते हैं, सभी जीवों का शरणभूत वह जिन शासन चिरकाल तक वृद्धिंगत होवे ॥११॥ प्राचारवृत्ति-संसरण का नाम संसार है। वह संसार ही एक समुद्र है और उसका अन्त–पार न होने से वह अनन्त है अर्थात् सर्वज्ञ देव के केवलज्ञान का ही विषय है । जिस जिनशासन के आश्रय लेनेवाले जीव ऐसे अनन्त संसार-समुद्र को भी पार कर जाते हैं वह सभी जीवों को शरण देनेवाला जिनेन्द्रदेव का शासन हमेशा वृद्धि को प्राप्त होता रहे। अर्थात जिसके अनुष्ठान से मुक्ति होती है उसीको नमस्कार करना योग्य है ऐसा यहाँ अभिप्राय है। अब आराधना का फल बताते हुए कहते हैं गाथार्थ-अर्हन्तों की जो गति है और सिद्धों की जो गति है तथा वीतमोह जीवों की जो गति है वही गति मेरी सदा होवे ॥११६॥ सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके तथा चार प्रकार के आहार को भी छोड़कर जिनेन्द्रदेव को हृदय में धारण करके ही क्यों मरण करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं गाथार्थ-एक ही पण्डितमरण बहुविध सौ-सौ जन्मों को समाप्त कर देता है। १. यह गाथा इसी ग्रन्थ में क्रमांक १०७ पर आ चुकी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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