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________________ १०४] [मूलाचारे शरीरकषायाणां च। तत्र त्रिविधस्य योगस्य निग्रहो योगप्रतिक्रमणं, पंचेन्द्रियाणां च निग्रह इन्द्रियप्रतिक्रमणं, पंचविधस्य च शरीरस्य च त्यागः कृशता वा शरीरप्रतिक्रमणं, षोडशविधकषायस्य नवविधस्य च नोकषायस्य निग्रहः कृशता कषायप्रतिक्रमणं, हस्तपादानां च ॥१२०॥ ननु कषायशरीरसल्लेखना आराधनायां आगमे कथिता, एतेषां पुनर्योगेन्द्रियहस्तपादानां न श्रुता, नैतत्, एतेषां चागमेऽस्तीत्याह पंचवि इंदियमुंडा वचमुंडा हत्थपायमणमुंडा। . तणुमुंडेण वि सहिया दस मुंडा वणिया समए ॥१२१॥ पंचानामपि इन्द्रियाणां मुण्डनं खण्डनं स्वविषयव्यापारान्निवर्तनं । वचिमण्डा-वचनस्याप्रस्तुतप्रलापस्य खण्डनं । हस्तपादमनसा वाऽसंस्तुतसंकोचप्रसारणचिन्तननिवर्तनं तत: शरीरस्य च मुण्डनं एते दश यावज्जीवन पानक के त्याग रूप उत्तमार्य प्रतिक्रमण, ये तीन प्रतिक्रमण ही केवल नहीं हैं किन्तु योग, इन्द्रिय, शरीर और कषायों के प्रतिक्रमण भी होते हैं। उनमें से तीन प्रकार के योगों का निग्रह करना योग प्रतिक्रमण है, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना इन्द्रिय प्रतिक्रमण है, पाँच प्रकार के शरीर का त्याग करना अथवा उन्हें कृश करना शरीर प्रतिक्रमण है, सोलह भेद रूप कषायों और नव नोकषायों का निग्रह करना-उन्हें कृश करना यह कषाय प्रतिक्रमण है । हाथपैरों का भी प्रतिक्रमण होता है। भावार्थ-सल्लेखना करने वाले क्षपक के लिए उपर्युक्त तीन प्रतिक्रमण तो हैं ही, किन्तु योग इन्द्रिय आदि का निग्रह करना और हाथ-पैरों को उनकी चेष्टाएँ रोककर स्थिर करना ये सब प्रतिक्रमण ही हैं। आगम में, आराधना में कषाय सल्लेखना और काय सल्लेखना का वर्णन किया है किन्तु इन योग, इन्द्रिय और हस्त-पाद आदि का प्रतिक्रमण तो मैंने नहीं सुना है, शिष्य के द्वारा ऐसी आशंका उठाने पर आचार्य कहते हैं—ऐसी बात नहीं है। इन योग, इन्द्रिय आदि के प्रतिक्रमण का वर्णन भी आगम में है, सो ही बताते हैं गाथार्थ-पाँच इन्द्रियमुण्डन, वचनमुण्डन, और शरीरमुण्डन से सहित हस्त, पाद एवं मनोमुण्डन ऐसे दश मुण्डन आगम में कहे गये है ॥१२१॥ प्राचारवृत्ति—पाँचों ही इन्द्रियों का मुडन करना-खंडन करना अर्थात् अपने विषयों के व्यापार से उन्हें अलग करना ये पाँच इन्द्रियमुण्डन हैं। अप्रासंगिक प्रलापरूप वचन का खण्डन करना या रोकना वचनमण्डन है। हस्त और पाद का अप्रशस्त रूप से संकोचन नहीं करना और न फैलाना ये हस्तमुण्डन और पादमुण्डन है तथा मन को अप्रशस्त चिन्तन से रोकना यह मनोमुण्डन है । ऐसे ही शरीर का मुण्डन है। मुण्डन के ये दश भेद आगम में कहे गये हैं। इनका व्याख्यान हमने अपनी बुद्धि से नहीं किया है ऐसा समझना । अथवा इन दश मुण्डनों से मुण्डधारी मुण्डित कहलाते हैं, न कि अन्य सदोष प्रवृत्तियों से । भावार्थ-शिर को मुण्डा लेने या केशलोच कर लेने मात्र से ही कोई मुण्डित नहीं हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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