SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “जो बारह प्रकार के तपों में तत्पर रहते हैं, द्वादश अंग और चौदह पूर्वरूप श्रुत के ज्ञाता हैं, अथवा काल-क्षेत्र के अनुरूप आगम के वेत्ता हैं और प्रायश्चित्त शास्त्र में कुशल हैं, जिनका शरीर भी बलशाली है, जो शरीर में निर्मोही हैं, और एकत्व भावना को सदा भाते रहते हैं, जिनके सदा शुभ परिणाम रहते हैं, वज्र-वृषभ आदि उत्तमसंहनन होने से जिनकी हड्डियाँ मजबूत हैं, जिनका मनोबल श्रेष्ठ है, जो क्षुधा आदि परीषहों के जीतने में समर्थ हैं, ऐसे महामुनि ही एकल बिहारी हो सकते हैं।" इससे अतिरिक्त, कौन से मुनि एकल विहारी नहीं हो सकते हैं-"जो स्वच्छन्द गमनागमन करता है, जिसकी उठना, बैठना, सोना आदि प्रवृत्तियाँ स्वच्छन्द हैं, जो आहार ग्रहण करने में एवं किसी भी वस्तु के उठाने-धरने और बोलने में स्वैर है ऐसा मेरा शत्रु भी एकाकी न रहे।" अकेले रहने से हानि क्या है, इसका उल्लेख करते हुए आचार्य लिखते हैं "गुरु निन्दा, श्रुत का विच्छेद, तीर्थ की मलिनता, जड़ता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता आदि दोष हो जाते हैं। और फिर कण्टक, शत्रु, चोर, क्रूर पशु, सर्प, म्लेच्छ मनुष्य आदि से संकट भी आ जाते हैं। रोग, विष आदि से अपघात भी सम्भव है। एकल विहारी साधु के और भी दोष होते हैं-जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का उलंघन, अनवस्था—और भी साधुओं का देखा-देखी एकलविहारी हो जाना, मिथ्यात्व का सेवन, अपने सम्यग्दर्शन आदि का विनाश अथवा अपने कार्य-आत्मकल्याण का विनाश, संयम की विराधना आदि दोष भी सम्भव हैं। अतः इस पंचमकाल में साधु को एकलविहारी नहीं होना चाहिए।" इसी ग्रन्थ के समयसार अधिकार में ऐसे एकलविहारी को 'पापश्रमण' कहा है-"जो आचार्य के कुल को अर्थात् संघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है, और उपदेश को नहीं मानता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है'।" संघ में पांच आधार माने गये हैं "आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर । जहाँ ये नहीं हैं, वहाँ नहीं रहना चाहिए। जो शिष्यों के ऊपर अनुग्रह करते हैं वे आचार्य हैं । जो धर्म का उपदेश देते हैं वे उपाध्याय हैं। जो संघ का प्रवर्तन करते हैं वे प्रवर्तक हैं। जो मर्यादा का उपदेश देते हैं वे स्थविर हैं और जो गण की रक्षा करते हैं वे गणधर हैं।" "ये मूलगुण और यह जो सामाचार विधि मुनियों के लिए बतलायी गयी है वह सर्वचर्या ही अहोरात्र यथायोग्य आयिकाओं को भी करने योग्य है। यथायोग्य यानी उन्हें वृक्षमुल १. सच्छंद गदागदी सयणणिसयणादाणभिक्खबोसरणे । - सच्छंद जंपरोचि य मा मे सत्तू वि एगागी ॥१५०॥ समाचाराधिकार । २. मूलाचार गाथा-४,५,७ समाचाराधिकार। ३. आयरियकूलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दूएगामी। ण य गेण्हदि उबदेसं पावस्समणोत्ति बुच्चदि द्र ॥ समाचाराधिकार आच उपोद्घात । १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy