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प्रमाण, अंगार, धूम और कारण इन आठ दोषों से रहित पिण्डशुद्धि होती है। उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १०, इस प्रकार ४२ दोष हुए। पुनः संयोजना, प्रमाण, अंगार और धूम ये ४ मिलकर ४६ दोष होते हैं। मुनिजन इन दोषों को टालकर, ३२ अन्तरायों को छोड़कर आहार लेते हैं। किन कारणों से आहार लेते हैं, किन कारणों से छोड़ते हैं इत्यादि का इसमें विस्तार से कथन है।
७. षडावश्यकाधिकार-इसमें 'आवश्यक' शब्द का अर्थ बतलाकर समता, चतुविशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं का विस्तार से वर्णन है।
८. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार--इसमें बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। लोकायुप्रेक्षा को आचार्य ने छठी अनुप्रेक्षा में लिया है। सप्तम अनुप्रेक्षा का नाम अशुभ अनुप्रेक्षा रखा है और आगे उसी अशुभ का लक्षण किया है । इन अनुप्रेक्षाओं के क्रम का मैंने पहले खुलासा कर दिया है।
९. अनगारभावनाधिकार-इसमें मुनियों की उत्कृष्ट चर्या का वर्णन है। लिंग, व्रत, वसति, विहार. भिक्षा, ज्ञान, शरीर-संस्कार-त्याग, वावय, तप और ध्यान सम्बन्धी दश शुद्धियों का अच्छा विवेचन है। तथा अभ्रावकाश आदि योगों का भी वर्णन है।
१०. समयसाराधिकार-इसमें चारित्रशुद्धि के हेतुओं का कथन है । चार प्रकार के लिंग का और दश प्रकार के स्थितिकल्प का भी अच्छा विवेचन है। ये हैं-१. अचेलकत्व, २. अनौद्दशिक, ३. शंयागृहत्याग, ४. राजपिडत्याग, ५. कृतिकर्म, ६. व्रत, ७. ज्येष्ठता, ८. प्रतिक्रमण, ६. मासस्थिति कल्प और १०. पर्यवस्थितिकल्प है।
११. शीलगुणाधिकार-इसमें १८ हजार शील के भेदों का विस्तार है। तथा ८४ लाख उत्तरगुणों का भी कथन है।
१२. पर्याप्त्यधिकार-जीव की छह पर्याप्तियों को बताकर संसारी जीव के अनेक भेद-प्रभेदों का कथन किया है। क्योंकि जीवों के नाना भेदों को जानकर ही उनकी रक्षा की जा सकती है। अनन्तर कर्म प्रकृतियों के क्षय का विधान है। क्योंकि मलाचार ग्रन्थ के पढ़ने का फल मूलगुणों को ग्रहण करके अनेक उत्तरगुणों को भी प्राप्त करना है। पूनः तपश्चरण और ध्यान विशेष के द्वारा कर्मों को नष्ट कर देना ही इसके स्वाध्याय का फल है।
यह तो इस ग्रन्थ के १२ अधिकारों का दिग्दर्शन मात्र है । इसमें कितनी विशेषताएं हैं, वे सब इसके स्वाध्याय से और पुनः पुनः मनन से ही ज्ञात हो सकेंगी। फिर भी उदाहरण के तौर पर दो-चार विशेषताओं का यहाँ उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगाएकल विहार का निषेध
___ इस मूलाचार में आचार्य कुन्दकुन्द ने यह बताया है कि कौन से मुनि एकाकी विहार कर सकते हैं
१२ / मूलाचार
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