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________________ आतापन आदि योग वर्जित किये हैं।" उनके लिए दो साड़ी का तथा बैठकर करपात्र में आहार करने का विधान है। अच्छे साधु भगवान् हैं सुस्थित अर्थात् अच्छे साधु को 'भगवान्' संज्ञा दी है भिक्खं वक्कं हिययं साधिय जो चरदि णिच्च सो साहू। एसो सुद्विद साहू भणिओ जिणसासणे भयवं' ॥ जो आहार शुद्धि, वचनशुद्धि और मन की शुद्धि को रखते हुए सदा ही चारित्र का पालन करता है, जैनशासन में ऐसे साधु की 'भगवान्' संज्ञा है। अर्थात् ऐसे महामुनि चलतेफिरते भगवान् ही हैं। मुनियों के अहोरात्र किये जानेवाले कृतिकर्म का भी विवेचन है चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए। पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होति ॥६०२।। अर्थात् चार प्रतिक्रमण में और तीन स्वाध्याय में इस प्रकार सात कृतिकर्म हुए, ऐसे पूर्वाह्न और अपराह्न के चौदह कृतिकर्म होते हैं। . टीकाकार श्री वसुनन्दि आचार्य ने इन कृतिकर्म को स्पष्ट किया है-"पिछली रात्रि में प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म, स्वाध्याय में तीन और देववंदना में दो, सूर्योदय के बाद स्वाध्याय के तीन, मध्याह्न देववन्दना के दो इस प्रकार पूर्वाह्न सम्बन्धी कृतिकर्म चौदह हो जाते हैं। पूनः अपराह्न वेला में स्वाध्याय के तीन, प्रतिक्रमण के चार, देववन्दना के दो, रात्रियोग ग्रहण सम्बन्धी योगभक्ति का एक और प्रातः रात्रि योग निष्ठापन सम्बन्धी एक ऐसे दो और पूर्व रात्रिक स्वाध्याय के तीन, ये अपराह्न के चौदह कृतिकर्म हो जाते हैं । पूर्वाह्न के समीप काल को पूर्वाह्न और अपराह्न के समीप काल को अपराह्न से शब्द लिया जाता है।" __ इस प्रकार मुनियों के अहोरात्र सम्बन्धी २८ कृतिकर्म होते हैं जो अवश्य करणीय हैं । इनका विशेष खुलासा इस प्रकार है ___साधु पिछली रात्रि में उठकर सर्वप्रथम 'अपररात्रिक' स्वाध्याय करते हैं। उसमें स्वाध्याय प्रतिष्ठापन क्रिया में लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति होती हैं। पुनःस्वाध्याय निष्ठापन क्रिया में मात्र लघु श्रुतिभक्ति की जाती है। इसलिए इन तीन भक्ति सम्बन्धी तीन कृतिकर्म होते हैं। पुनः 'रात्रिक प्रतिक्रमण' में चार कृतिकर्म हैं। इसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, वीरभक्ति और चतुविशति तीर्थंकर भक्ति सम्बन्धी चार कृतिकर्म हैं। पुनः रात्रियोग निष्ठापना हेतु योगिभक्ति का एक कृतिकर्म होता है। अनन्तर 'पौर्वाह्निक देववन्दना' में चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति के दो कृतिकर्म होते हैं। इसके बाद पूर्वाह्न के स्वाध्याय में तीन कृति १. षडावश्यक अधिकार १४/ मूलाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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