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________________ १०] [मूलाचार भगवं भगवान् ज्ञानमुखवान् । सरणो-शरणः । महावीरो-वर्धमानस्वामी। ज्ञानदर्शनचारि तपांमि मम शरणानि तेषामुपदेष्टा च महावीरो भगवान् शरणमिति ।।६।। आराधनाया: कि फलं? इत्यत आह पाराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्म। उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण य लहइ निव्वाणं ॥१७॥ आराहण उवजुत्तो-आराधनोपयुक्तः सम्यग्दर्शनज्ञानादिपु तात्पयंवृत्तिः । कालं काऊग-काल कृत्वा। सुविहिओ-सुविहितः शोभनानुष्ठानः। सम्म-सम्यक् । उक्स्सं--उत्कृप्टेन । तिष्णि-बीन् । भवे-भवान् । गन्तूण य-गत्वा च। लहइ लभते । णिव्वाणं-निर्वाण । सुविहितः सम्यगाराधनोपयुक्तः कालं कृत्वा उत्कण त्रीन् भवान् प्राप्य ततो निर्वाण लभते इति ।।६७॥ आचार्यानुशास्तिं श्रुत्वा शास्त्र ज्ञात्वा क्षपकः कारणपूर्वक परिणाम कर्तुकामः प्राह समणो मेत्तिय पढमं बिदियं सव्वत्थ संजदो मेत्ति । सव्वं च बोस्सरामि य एवं भणिदं समासेण ॥८॥ समणो मेत्ति य-श्रमणः समरमीभावयुक्तः, इति च । पढम-प्रथमः । विदियं-द्वितीयः । सव्वत्य वह चारित्र है, वही मेरा सहाय है । जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है, जलाता है वह तप है। वह द्वादश भेदरूप है । प्राणियों की रक्षा तथा इन्द्रियों का संयमन यह संयम है। ये तप और संयम मेरे शरण हैं तथा ज्ञान और मुखपूर्ण भगवान् वर्धमान स्वामी ही मेरे लिए शरण हैं। तात्पर्य यह कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये ही मेरे रक्षक हैं और इनके उपदेष्टा भगवान महावीर ही मेरे रक्षक हैं । यहाँ पर जो पुनः पुनः 'शरणं' शब्द आया है सो सुख सेसरलता से समझने के लिए ही आया है । अथवा इन दर्शन, जान आदि के प्रति अपनी दृढ़ श्रद्धा को सूचित करने के लिए भी समझना चाहिए। आराधना का फल क्या है ? सो बतलाते हैं-- गाथार्थ-आराधना में तत्पर हुआ साधु आगम में कथित सम्यक्प्रकार से मरण करके उत्कृष्ट रूप से तीन भव को प्रात कर पुनः निर्वाण को प्राप्त कर लेता है ।।७।। __ प्राचारवत्ति--शुभ अनुष्ठान से सहित साधु सम्यक् प्रकार से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं में तत्परता से प्रवृत्त होता हुआ साधु मरण करके उत्कृष्ट से तीन भवों को प्राप्त करके पश्चात् निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार से आचार्य की अनुशास्ति अर्थात वाणी को सुनकर और शास्त्र को समझकर क्षपक कारणपूर्वक परिणाम को करने की इच्छा रखता हुआ कहता है गाथार्थ-पहला तो मेरा थमण यह रूप है और दुसरा सभी जगह मेरा संयत-- संयमित होना यह रूप है। इसलिए संक्षेप से कहे गये इन सभी अयोग्य कामैं त्याग करता हूँ ।।१८। प्राचारवृत्ति-श्रमण---'समरसी भावयुक्त होना' यह मेरी प्रथम स्थिति है । 'सर्वत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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