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________________ बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] {ct संजदो-सर्वत्र संयतः। मेत्ति-मम इति । अथवा श्रमणे मम प्रथमं मैव्यं । द्वितीयं च सर्वसंयतेषु । सव्वं चसर्व च । वोस्सरामि य-व्यूत्सजामि च। एवं-एतत् । भणिदं-भणितं। समासेण-समासेन संक्षेपतः । प्रथमस्तावत् समानभावोह द्वितीयश्न सर्वत्र संयतोऽत: सर्वमयोग्यं व्यूत्स जामि एतदर्भणितं संक्षेपतो मयेति सम्बन्धः संक्षेपालोचनमेतत् ।।६।। पुनरपि दृढपरिणाम दर्शयति लद्धं अलद्धपुत्वं जिणवयणसुभासिदं' अमिदभूदं । गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बोहेमि ॥६॥ लदं-लब्ध प्राप्त । अलखपुग्वं-अलब्धपूर्व । जिणवयणं-जिनवचनं । 'सुभासिद-~-सुभाषित प्रमाणनयाविरुद्धं । अमिदभूदं--अमृतभूतं सुखहेतुत्वात्। गहिदो-गृहीतः। सुग्गदिमग्गो-सुगतिमार्गः । णाहं मरणस्स बोहेमि–नाहं मरणाबिभेमि । अलब्धपूर्व जिनवचनं सुभाषितं अमृतभूतं लब्धं मण सुगतिमार्गश्च गृहीतोऽतः नाहं मरणाद्विभेमीति ॥६६॥ अतश्च संयत होना' यह मेरी दूसरी अवस्था है। अथवा श्रमण-समता भाव में मेरा मैत्रीभाव है यह प्रथम है और सभी संयतों-मुनियों में मेरा मैत्रीभाव है यह दूसरी अवस्था है। अभिप्राय यह है कि प्रथम तो मैं सुख-दुःख आदि में समान भाव को धारण करवेवाला हूँ और दूसरी बात यह है कि मैं सभी जगह संयत-संयमपूर्ण प्रवृत्ति करनेवाला हूँ इसलिए सभी अयोग्य कार्य या वस्तु का मैं त्याग करता हूँ यह मेरा संक्षिप्त कथन है। इस प्रकार से वचनों द्वारा क्षपक संक्षेप से आलोचना करता है। पुनरपि क्षपक अपने परिणामों की दृढ़ता को दिखलाता है गाथार्थ-जिनको पहले कभी नहीं प्राप्त किया था ऐसे अलब्धपूर्व, अमृतमय, जिनवचन सुभाषित को मैंने अब प्राप्त किया है । अब मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है। इसलिए अब मैं मरण से नहीं डरता हूँ॥६६॥ प्राचारवृत्ति-जिनेन्द्रदेव के वचन प्रमाण और नयों से अविरुद्ध होने से सभाषित हैं और सुख के हेतु होने से अमृतभूत हैं । ऐसे इन वचनों को मैंने पहले कभी नहीं प्राप्त किया था। अब इनको प्राप्त करके मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है । अर्थात् जिनदेव की आज्ञानुसार मैंने संयम को धारण करके मोक्ष के मार्ग में चलना शुरू कर दिया है। अब मैं मरण से नहीं डरूँगा। क्योंकि१-२ क सुहासि। फलटन से प्रकाशित प्रति की गाथा में निम्न कार से अन्तर है वीरेण विमरिवब्बं णिव्वीरेण बिअवस्स मरिचम्ब। जरिवोहि विहि मरिवव्वं बरं हि वीरत्तण मरिबब्वं ॥॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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