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________________ महत्तत्याल्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] यदि पीडोत्पद्यते मरणकाले। किमोषधं ? इत्याह जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूवं। जरमरणवाहिवेयणखयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥५॥ जिणवयणं-जिनवचनं । ओसह-औषधं रोगापहरं द्रव्यं । इणं-एतत् । विसयसुहविरेयणंविषयेभ्य: सुखं विषयसुखं तस्य विरेचनं द्रावक द्रव्यं विषयसुखविरेचनं । अमिदभूदं-अमृतभूतं । जरमरणवाहिवेयण-जरामरणव्याधिवेदनानां। बहुकालीना व्याधिः, आकस्मिका वेदना तयोर्भेदः । अथवा व्याधिभ्यो वेदना । खयकरणं-विनाशनिमित्तं। सव्वदुक्खाणं-सर्वदुःखानां । विषयसुखविरेचनं, अमृतभूतं चौषधमेतज्जिनवचनमिति सम्बन्धः ॥६॥ कि तस्मिन्काले शरणं चेत्याह ! णाणं सरणं मे देसणं' च सरणं चरियसरणं च । तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो॥६६॥ णाणं-ज्ञानं यथावस्थितवस्तुपरिच्छेदः। सरणं-शरणं आश्रयः । मे--मम। दंसणं-दर्शनं प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्याभिव्यक्तलक्षणपरिणामः । सरणं-शरणं संसाराद्रक्षणं। चरियं-चरित्र ज्ञानवतः संसारकारणनिति प्रत्यागुणवतोऽनुष्ठानं । सरणं च-सहायं च । सुखावबोधार्थं पुनः पुनः शरणग्रहण । तवंःतपति दहति शरीरेन्द्रियाणि तपो द्वादशप्रकारं । संजमं–संयमः प्राणेन्द्रियसंयमनं । सिरणं]-शरणं । यदि मरणकाल में पीड़ा उत्पन्न हो जावे तो क्या औषधि है ? सो बताते हैं गाथार्थ-विषय सुख का विरेचन करानेवाले और अमृतमय ये जिनवचन ही औषध हैं । ये जरा-मरण और व्याधि से होनेवाली वेदना को तथा सर्व दुःखों को नष्ट करनेवाले हैं ॥६५॥ प्राचारवृत्ति-दीर्घकालीन रोग व्याधि है। आकस्मिक होनेवाला कष्ट वेदना है। इस प्रकार इन दोनों में अन्तर भी है अथवा व्याधियों से उत्पन्न हुई वेदना व्याधि वेदना है। अर्थात् जिनेन्द्रदेव की वाणी महान् औषधि है यह विषय सुख का विरेचन करा देती है। वृद्धावस्था और मरणरूप जो महाव्याधियाँ हैं उनको तथा सम्पूर्ण दुःखों को दूर करा देती है। इसीलिए यह जिनवाणी अमृतमय है। उस समय शरण कौन हैं ? सो बताते हैं गाथार्थ-मुझे ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तपश्चरण और संयम शरण है तथा भगवान् महावीर शरण हैं ॥६६॥ प्राचारवृत्ति-जो वस्तु जैसी है उसका उसी रूप से जानना सो ज्ञान है, वह ज्ञान ही मेरा शरण अर्थात् आश्रय है । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इनकी अभिव्यक्तिलक्षण जो परिणाम हैं वह दर्शन है वही मेरा शरण है अर्थात् संसार से मेरी रक्षा करनेवाला है। संसार के कारणों का अभाव करने के लिए उद्यत हुए ज्ञानवान पुरुष का जो अनुष्ठान है १.क 'णं सरणं चरियं च सरणं च । तव संजमो य स । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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