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________________ ८] [मूलाचारे प्रवचने। वच्चदि-ब्रजति गच्छति प्रवर्तते।णरो-नरेण सर्वसंगपरित्यागिना। अभिक्खं-अभीक्ष्णं नैरन्तर्येण । तं-तत । मरणंते-मरणान्ते कण्ठगतप्राणेऽत्यसमये वा। ण मोत्सव्वं-न मोक्तव्यं न परित्यजनीयं । एकपदे द्वितीयपदे वा पंचनमस्कारपदे वा वीतरागमार्गे यस्मिन् संवेगोऽभीक्ष्णं गच्छति तत्पदं मरणान्तेऽपि न मोक्तव्यं नरेण; नरो वा संवेगं यथा भवति तथा यस्मिन्पदे गच्छति प्रवर्तते तत्पदं तेन न मोक्तव्यमिति सम्बन्धः । किमिति कृत्वा तन्न मोक्तव्यं यत: एदह्मादो एक्कं हि सिलोगं मरणदेसयालसि। पाराहणउवजुत्तो चितंतो पाराधो होदि ॥१४॥ एबह्मादो--एतस्मात् श्रुतस्कन्धात् पंचनस्काराद्वा। एक्कं हि-एकं ह्यपि एकमपि तथ्यं । सिलोगं -श्लोकं । मरणदेसयालम्मि-मरणदेशकाले । आराहण उवजुत्तो-आराधनया' उपयुक्तः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोनुष्ठानपरः । चितंतो-चिंतयन् । आराधओ-आराधक: रत्नत्रयस्वामी । होइ-भवति सम्पद्यते। एतस्मात् श्रुतात् पंचनमस्काराद्वा मरणदेशकाले एकमपि श्लोकं चितयन् आराधनोपयुक्तः सन आराधको भवति यतस्ततस्त्वयेदं न मोक्तव्यमिति सम्बन्धः ॥१४॥ इस पद में निरन्तर संवेग को प्राप्त होता है, धर्म में हर्षभाव को प्राप्त होता है। यहाँ पद शब्द से अर्थपद, ग्रन्थपद या प्रमाणपद या नमस्कारपद को लिया गया है । अथवा 'एकम्हि वीजम्हि पदे' ऐसा पाठान्तर भी है जिसका ऐसा अर्थ करना कि किसी एक वीजपद में अर्थात् 'ॐ ह्रीं' या 'अ-सि-आ-उ-सा' आदि बीजाक्षर पदों का आश्रय लेता है। इसलिए मरण के अन्त में अर्थात् कण्ठगत प्राण के होने पर या अन्तिम समय में इन पदों का अवलम्बन नहीं छोड़ना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि जिस वीतरागदेव के प्रवचन रूप एक–प्रथम पद में या द्वितीयपद में अथवा नमस्कार मन्त्र पद में साधु निरन्तर संवेग को प्राप्त हो जाते हैं। इस हेतु से इन पदों को मरण के अन्त में भी नहीं छोड़ना चाहिए। __ अथवा जो भी कोई साधु जैसे भी बने वैसे जिस पद में प्रीति को प्राप्त कर सकते हैं, उस पद को उन्हें नहीं छोड़ना चाहिए अर्थात् उन्हें उसी पद का आश्रय लेना चाहिए। क्यों नहीं छोड़ना चाहिए उसे ? सो ही बताते हैं __ गाथार्थ-आराधना में लगा हुआ साधु मरण के काल में इस श्रुत समुद्र से एक भी श्लोक का चिन्तवन करता हुआ आराधक हो जाता है ॥१४॥ प्राचारवृत्ति-आराधना से उपयुक्त अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओं के अनुष्ठान में तत्पर हुआ साधु द्वादशांगरूप श्रुतस्कन्ध से या पंचनमस्कार पद से एक भी तथ्य-सत्यभूत श्लोक को ग्रहण कर यदि संन्यास काल में उसका चिन्तवन करता है तो वह आराधक-रत्नत्रय का स्वामी-अधिकारी हो जाता है । इसलिए तुम्हें भी किसी एक पद का अवलम्बन लेकर उसे नहीं छोड़ना चाहिए। १ क 'न । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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