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________________ बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः ] 15 दिश्यते अतिसृज्यते इति देशः शरीरं तस्य कालस्तस्मिन् शरीरपरित्यागकाले । सक्को— शक्यः । बारसविहोद्वादशविधः द्वादशप्रकारः सुवक्खंधो — श्रुतस्कंधः श्रुतवृक्ष इत्यर्थः । सव्वो-सवं समस्तं । अणुचितेषु - अनुचिन्तयितुं अर्थेन भावयितुं पठितुं च । वलिणावि - बलिनापि शरीरगत बलेनापि । समत्यचितेण -- समर्थचित्तेन एकचित्तेन यतिना । तस्मिन् देशकाले बलयुक्तेन समर्थचित्तेनापि द्वादशविधं श्रुतस्कन्ध न शक्यमनुचिन्तयितुम् ॥ ६२॥ यतस्ततः किं कर्तव्यं ! एक्कबिदिय पदे संवेगो वीयरायमग्गम्मि । वच्चदि णरो अभिक्खं तं मरणंते ण मोत्तव्यं ॥ ६३ ॥ एक्क ि -- एकस्मिन् नमोऽर्हद्भ्यः इत्येतस्मिन् । विदियमि-द्वयोः पूरणं द्वितीयं नमः सिद्धेभ्य इत्येतस्मिन् । संवेओ — संवेगः धर्मे हर्षः । पदे - - अर्थपदे ग्रन्थपदे प्रमाणपदे वा पंचनमस्कारपदे च । अथवा एकहि वीजम्हि पदे -- एकस्मिन्नपि बीजपदे यस्मिन्निति पाठान्तरम् । वीयरागमग्गम्मि बीतरागमार्गे सर्वज्ञ अर्थ में है अतः 'दिश्यते अतिसृज्यते इति देशः शरीरं' अर्थात् जिसका त्याग किया है वह देशशरीर है । उस शरीर का जो काल है वह देशकाल है अर्थात् वह शरीर के परित्याग का काल कहलाता है । उस शरीर परित्याग के समय जो साधु शारीरिक बल से सहित भी हैं तथा समर्थ मनवाला - एकाग्र चित्तवाला भी है तो भी वह बारह प्रकार के सम्पूर्ण श्रुतरूपी वृक्ष का अनुचिन्तन नहीं कर सकता है अर्थात् सम्पूर्ण श्रुत को अर्थ रूप से अनुभव करने को और उसके पाठ करने को समर्थ नहीं हो सकता है । तात्पर्य यह है कि कितना भी शरीरबली या मनोबली साधु क्यों न हो तो भी अन्तसमय में वह सम्पूर्ण श्रुतमय शास्त्रों के अर्थों का चिन्तवन नहीं कर सकता है । यदि ऐसी बात है तो उसे क्या करना चाहिए ? गाथार्थ -- मनुष्य वीतराग मार्ग स्वरूप अर्हत्प्रवचन के एकपद या द्वितीय पद में निरन्तर संवेग प्राप्त करता है । इसलिए मरणकाल में इन पदों को नहीं छोड़ना चाहिए ॥ ६३ ॥ प्राचारवृत्ति - जो सर्वसंग का त्यागी मुनि वीतराग मार्ग - सर्वज्ञदेव के प्रवचन के किसी एक पद में या 'अर्हद्द्भ्यो नम:' इस प्रथम पद में या द्वितीयपद अर्थात् 'सिद्धेभ्यो नमः ' १. क 'बलोपेतेनापि । फलटन से प्रकाशित प्रति में निम्नलिखित गाथा अधिक है शरीर त्याग के समय सप्ताक्षरी मन्त्र का चिन्तन श्रेयस्कर है तत्तक्खरसज्झाणं अरहंताणं णमोत्ति भावेण । जो कुणदि अणण्णमदी सो पावदि उत्तमं ठाणं ॥८८॥ अर्थ -- ' णमो अरहंताणं' यह सप्त अक्षर युक्त मन्त्र है। जो क्षपक एकाग्रचित्त होकर इस मन्त्र का ध्यान करता है, वह उत्तम स्थान - मोक्ष प्राप्त कर लेता है । और, यदि क्षपक अचरम शरीरी है तो स्वर्ग में इन्द्रादि पद का धारक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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