SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६] [मूलाचारे उडढं-ऊर्ध्व ऊर्ध्वलोके । अधो-अधसि अधोलोके नरकभवनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पे। तिरियहि दु-तिर्यक्षु च एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्तजातिषु । कदाणि-कृतानि प्राप्तानि बालमरणानि । बहुगाणिबहूनि । दंसणणाणसह---दर्शनज्ञानाभ्यां साधं, गदो-गतः प्राप्तः, पडियमरणं—पण्डितमरणं शुद्धपरिणामचारित्रपूर्वकप्राणत्यागं । अणुमरिस्से—अनुमरिष्यामि संन्यासं करिष्यामि । ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्षु च बहूनि बालमरणानि यतो मया प्राप्तानि, अतो दर्शनज्ञानाभ्यां सार्धं पण्डितमरणं गतोऽहं मरिष्यामीति । एतानि चाकामकृतानि मरणानि स्मरन् पण्डितमरणमनुमरिष्यामीत्यत आह उग्वेयमरणं जादीमरणं णिरएस वेदणाम्रो य। एदाणि संभरंतो पंडियमरणं अणुमरिस्से ॥७६॥ उव्वेयमरणं-उद्वेगमरणं इष्टवियोगानिष्टसंयोगाभ्यां त्रासेन वा मरणं । जादीमरणं-जातिमरणं उत्पन्नमात्रस्य मृत्युर्गर्भस्थस्य वा। णिरएसु-नरकेषु । वेदणाओ य–वेदनाश्च पीडाश्च । एदाणि-एतानि । संभरंतो-संस्मरन् । पंडिदमरणं-पण्डितमरणं । अणुमरिस्से--अनुमरिष्यामि प्राणत्यागं करिष्यामि । एतानि उद्वेगजातिमरणानि नरकेषु वेदनाश्च संस्मरन् पण्डितमरणं प्राप्तः सन् प्राणत्यागं करिष्यामि । प्राचारवृत्ति-ऊर्ध्वलोक में स्वर्गलोक में तथा अधोलोक में नरकों में, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा तिर्यगलोक में-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जातियों में मैंने बहुत से बालमरण (बालबालमरण) किये हैं, अब मैं दर्शन और ज्ञान के साथ एकता को प्राप्त होता हुआ पण्डितमरण से मरूँगा । अर्थात् संन्यास विधि से शुद्ध परिणामरूप चारित्रपर्वक प्राणों का त्याग करूँगा। तात्पर्य यह है कि मैंने तीनों लोकों में अनन्त बार बालबालमरण किये हैं उनसे जन्म परम्परा बढ़ती ही गयी है अतः अब मैं बालमरण से होने वाली हानि को सुनकर धर्म में प्रीति तथा शरीरादि से विरक्ति धारण करता हुआ पण्डितमरण को प्राप्त करूँगा। पुनरपि इन अनभिप्रेत, जो अपने को इष्ट नहीं, ऐसे मरणों का स्मरण करता हुआ क्षपक 'मैं पण्डितमरण से मरूँगा' ऐसा विचार करता है ___ गाथार्थ-उद्वेगपूर्वक मरण, जन्मते ही मरण और जो नरकों की वेदनाएँ हैं इन सबका स्मरण करते हुए अब मैं पण्डितमरण से प्राणत्याग करूँगा ॥७६।। आचारवृत्ति—इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग के दुःख से जो मरण होता है अथवा अन्य किसी त्रास से जो मरण होता है उसको उद्वेगमरण कहते हैं। जन्म लेते ही मर जाना या गर्भ में मर जाना यह जातिमरण है । तथा नरकों में नारकियों को अनेक वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं। इन मरणों से होने वाले दुःखों का स्मरण करते हुए अब मैं पण्डितमरणपूर्वक ही शरीर को छोडूंगा। भावार्थ-पुत्र, मित्र आदि के मर जाने पर अथवा अनिष्टकर शत्रु या दुःखदायी बन्धु आदि के मिलने पर लोग संक्लेश परिणाम से प्राण छोड़ देते हैं। या अपघात भी कर डालते हैं। इन सभी कुमरणों से दुर्गति में जाकर अथवा नरक गति में जाकर नाना दुःखों को चिरकाल तक भोगते हैं। इन सभी तरह के क्लेश को मैंने भी स्वयं अनन्त बार भोगा है इसलिए अब इन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy