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________________ बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] किमर्थं पंडितमरणं मरणेषु शुभतमं यतः *एक्कं पंडिदमरणं छिददि जादीसयाणि बहुगाणि । तं मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि ॥७७॥ एक्कं-एकं। पंडिदमरणं-पंडितमरणं । छिददि-छिनत्ति । जादीसयाणि-जातिशतानि । बहगाणि-बहनि । तं-तत् तेन वा। मरणं--शरीरेन्द्रिययोवियोगः। मरिदव्वं-मर्तव्यं मरणं प्राप्तव्यं । जेण–येन । मदं-- मृतं । सुम्मदं-सुष्ठुमृतं । होदि-भवति । एकं पण्डितमरण जातिशतानि बहूनि छिनत्ति यतोऽतस्तेन मरणेन मर्तव्यं येन पुनरुत्पत्तिर्न भवति तद्वानुष्ठातव्यं येन न पुनर्जन्म । किमुक्तं भवति-पंडितमरणमनुष्ठेयमिति ॥७७॥ यदि संन्यासे पीडा-क्षुधादिकोत्पद्यते ततः किं कर्तव्यमित्याह जइ उप्पज्जइ दुःखं तो दट्ठव्वो सभावदो णिरये । कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण ॥७॥ जइ–यदि । उप्पज्जइ-उत्पद्यते । दुवखं—दुःखमसातं । तो-ततः । दट्टयो—द्रष्टव्यो मनसा'लोकनीयः । सभावदो-स्वभावतः स्वरूपं "दृश्यतेऽन्यत्रापि" इति तस्, प्राकृतबलादक्षराधिक्यं वा। णिरएदुःखों का स्मरण कर, उनसे डरकर मैं सल्लेखनापूर्वक ही मरण करना चाहता हूँ ऐसा क्षपक विचार करता है। मरणों में पण्डितमरण ही किसलिए अधिक शुभ है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं गाथार्थ-एक पण्डितमरण सौ-सौ जन्मों का नाश कर देता है अतः ऐसे ही मरण से मरना चाहिए कि जिससे मरण सुमरण हो जावे ॥७७॥ प्राचारवृत्ति-एक बार किया गया पण्डितमरण बहुत प्रकार के सैकड़ों जन्मों को नष्ट कर देता है। शरीर और इन्द्रियों का वियोग हो जाना जीव का मरण है इसलिए ऐसे मरण से मरना चाहिए कि जिससे यह मरण अच्छा मरण हो जावे अर्थात् ऐसी सल्लेखना विधि से मरण करे कि जिससे पुनः जन्म ही न लेना पड़े। अथवा ऐसे मरण का अनुष्ठान करना चाहिए कि जिसके बाद पुनः मरण ही न करना पड़े। इससे क्या तात्पर्य निकला ? मैं अब पण्डितमरण नामक सल्लेखना विधि से मरण करूँगा, क्षपक ऐसा दृढ़ निश्चय करता है। यदि संन्यास के समय भूख प्यास आदि पीड़ाएँ उत्पन्न हो जावें तो क्या करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं गाथार्थ-यदि उस समय दुःख उत्पन्न हो जावे तो नरक के स्वभाव को देखना चाहिए। संसार में संसरण करते हुए मैंने कौन-सा दुःख नहीं प्राप्त किया है ॥७॥ प्राचारवृत्ति-यदि असातावेदनीय के निमित्त से दुःख उत्पन्न होता है तो स्वभाव से नरक में देखना चाहिए अर्थात् नरक के स्वरूप का मन से अवलोकन करना चाहिए। यहाँ १. सहसा। यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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