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________________ बहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] अय कानि तानि बालमरणानीत्यत आह सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसोय। प्रणयारभंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि ॥७४॥ सत्यग्गहण-शस्त्रेणात्मनो ग्रहणं मारणं शस्त्रग्रहणं । शस्त्रग्रहणादुत्पन्न मरणमपि शस्त्रग्रहणं कार्ये कारणोपचारात् । विसभक्खणं-विषस्य मारणात्मकद्रव्यस्य भक्षणमुपयुंजनं विषभक्षणं तथैव सम्बन्धः कर्तव्यः। च-समुच्चयार्थः । जलणं-ज्वलनादग्नेरुत्पन्नं ज्वलनं । जलप्पवेसो य-जले पानीये प्रवेशो निमज्जनं निरुच्छ्वासं जलप्रवेशश्च तस्माज्जातं स एव वा मरणं । अणयारभण्डसेवी-अनाचारभांडसेवी न आचारोऽनाचारः पापक्रिया स एव भांडं द्रव्यं तत्सेवत इत्यनाचारभांडसेवी मरणेन सम्बन्धः । अथवा पुरुषेण सम्बन्धः अनाचारभांडसेवी तस्य । जम्मणमरणाणुबंधीणि-जन्म उत्पत्तिः, मरणं मृत्युस्तयोरनुबन्धः सन्तानः स येषां विद्यते तानि जन्ममरणानुबन्धीनि संसारकारणानीत्यर्थः । एतानि मरणानि जन्ममरणानुबन्धीनि अनाचारभांडसेवीनि यतोऽतो बालमरणानीति । अथवा अनाचारसेवीनि एतानि मरणानि संसारकारणानीति न सदाचारस्य। एवं श्रुत्वा क्षपकः संवेगनिर्वेदपरायण एवं चिन्तयति उड्ढमधो तिरिय ह्मि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि । दसणणाणसहगदो पंडियमरणं अणुमरिस्से ॥७॥ वे बालमरण कितने तरह के हैं ? उत्तर में कहते हैं गाथार्थ-शस्त्रों के घात से मरना, विष भक्षण करना, अग्नि में जल जाना, जल में प्रवेशकर मरना और पापक्रियामय द्रव्य का सेवन करके मरना ये मरण-जन्म और मृत्यु की परम्परा को करनेवाले हैं ।।७४।। __ आचारवृत्ति--जो शस्त्र से अपना मरण स्वयं करते हैं या किसी के द्वारा तलवार आदि से जिनका मरण हो जाता है, यहाँ 'शस्त्र ग्रहण' शब्द से स्वयं शस्त्र से आत्मघात करना या, शस्त्र के द्वारा मारा जाना दोनों विवक्षित हैं अतः यहाँ पर कार्य में कारण का उपचा है । विष अर्थात् मरण करानेवाली वस्तु का भक्षण कर लेना, अग्नि में जल कर मरना, जल में प्रवेश कर उच्छ्वास के रुक जाने से प्राणों का त्याग करना, अनाचार-पापक्रिया वही हुआ भांड-द्रव्य उसका सेवन करके मरना अर्थात् पाप-प्रवृत्ति करके मरना । अथवा पापी जीवों का जो मरण है वह अनाचार भांडसेवी मरण है । ये मरण जन्म-मरण की परम्परा को करनेवाले हैं अर्थात् संसार के लिए कारणभूत हैं । तात्पर्य यह कि ये सभी मरण संसार के कारण हैं और पाप क्रियारूप हैं अतः ये बालमरण कहलाते हैं । अथवा अनाचार-सेवन करने रूप ये सरण संसार के ही हेतु हैं। ये सदाचारी जीव के नहीं होते हैं । यहाँ पर भी बालमरण शब्द से बालबालमरण को ही ग्रहण करना चाहिए जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। यह सुनकर क्षपक संवेग और निर्वेद में तत्पर होता हुआ ऐसा चितवन करता है गाथार्थ-ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में मैंने बहुत बार बालमरण किये हैं। अब मैं दर्शन और ज्ञान से सहित होता हुआ पण्डितमरण से मरूँगा ॥७५।। १क अनाचारभण्डसेवनाचारः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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