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________________ बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] सूत्रणास्यार्थस्य प्रतीतिस्तथापि द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकशिष्यसंग्रहार्थः पुनरारम्भः एकान्तमतनिराकरणार्थं च । संसारकारणस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-- जे पुण गुरुपडिणीया बहुमोहा ससबला कुसीला य । असमाहिणा मरते ते होंति प्रणंतसंसारा ॥७॥ जे पुण-ये पुनः । गुरुपडिणीया-गुरूणां प्रत्यनीकाः प्रतिकूलाः गुरुप्रत्यनीकाः । बहुमोहामोहप्रचुराः रागद्वेषाभिहताः । ससबला-सह शबलेन लेपेन वर्तन्ते इति सशबलाः कुत्सिताचरणाः । कुसोला यकुशीला: कुत्सितं शीलं व्रतपरिरक्षणं येषां ते कुशीलाश्च । असमाहिणा-असमाधिना मिथ्यात्वसमन्वितातरोट्रपरिणामेन । मरते-नियन्ते । ते-ते। होति-भवन्ति ते एवं विशिष्टाः । अणंतसंसारा-अनन्तसंसारा अर्धपुद्गलप्रमाणसंसृतयः । ये पुन: गुरुप्रतिकूलाः, बहमोहाः कूशीलास्तेऽसमाधिना म्रियन्ते ततश्चानन्तसंसारा भवन्तीति। अथ परीतसंसाराः कथं भवन्तीति चेदतः प्राह हैं अतः उन्हें बोधि की प्राप्ति सुलभ ही है। यद्यपि पूर्व की गाथा से ही बोधि के महत्त्व का अर्थबोध हो जाता है फिर भी द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय से समझनेवाले शिष्यों का संग्रह करने के लिए, दोनों प्रकार के शिष्यों को समझाने के लिए ही यहाँ पहले व्यतिरेक मुख से, पुनः अन्वय मुख से, ऐसी दो गाथाओं से बोधि का व्याख्यान किया है । तथा एकान्तमत का निराकरण करने के लिए भी यह दोनों प्रकार का कथन है ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ-कुछेक का कहना है कि केवल अन्वय मुख से अर्थात् अपने विषय को बतलाते हुए ही कथन करना चाहिए तथा कुछेक का कथन है कि व्यतिरेक मुख से अर्थात् पर के निषेध रूप से अथवा वस्तु के दोष प्रतिपादन रूप से ही वस्तु का कथन करना चाहिए। किन्तु जैनाचार्य इन दोनों बातों को महत्त्व देते हुए अनेकान्त की पुष्टि करते हैं। इसीलिए पहले बोधि की दुर्लभता के कारणों को बताकर पुनः अगली गाथा से बोधि की सुलभता के कारणों को बताया है, ऐसा समझना। अब आचार्य संसार के कारण का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं गाथार्थ-जो पुनः गुरु के प्रतिकूल हैं, मोह की बहुलता से सहित हैं, शवल-अतिचार सहित चारित्र पालते हैं, कुत्सित आचरणवाले हैं वे असमाधि से मरण करते हैं और अनन्त संसारी हो जाते हैं ॥७१॥ आचारवृत्ति-जो साधु गुरुओं की आज्ञा नहीं पालते हैं, मोह की प्रचुरता से सहित राग-द्वेष से पीड़ित हो रहे हैं, शबल-लेपसहित अर्थात् कुत्सित आचरण वाले हैं तथा व्रतों को रक्षा करनेवाले जो शील हैं उन्हें भी कुत्सित रूप से जो पालते हैं, वे मिथ्यात्व से सहित हो आर्त एवं रौद्रध्यान रूप असमाधि से मरण करके अनन्त नामवाले अर्धपुद्गल प्रमाण काल तक संसार में ही भटकते रहते हैं। अब, परीत संसारी कैसे होते हैं, ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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