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________________ . . ७२] [मूलाचारे मिच्छादसणरत्ता–मिथ्यात्वदर्शनरक्ताः अतत्त्वार्थरुचयः । सणिदाणा-सह निदानेनाकांक्षया वर्तत इति सनिदानाः । किण्हलेसं-कृष्णलेश्यां 'अनन्तानुबन्धिकषायानुरञ्जितयोगप्रवृत्तिम् । ओगाढा-आगाढा प्रविष्टा रौद्रपरिणामाः । इह-अस्मिन् । जे-ये। मरति-म्रियन्ते प्राणांस्त्यजन्ति । जीवा-जीवाः प्राणिनः । तेसि-तेषां । पुण–पुनः । दुल्लहा-दुर्लभाः। योही-बोधिः सम्यक्त्वसहितशुभपरिणामः । इह ये जीवाः मिथ्यात्वदर्शनरक्ताः, सनिदानाः, कृष्णलेश्यां प्रविष्टाश्च म्रियन्ते तेषां पुनरपि, दुर्लभा बोधिः । उत्कृष्टतोऽर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्रात्सम्यक्त्वाविनाभावित्वाबोधेरतस्तादात्म्यं ततो बोधेरेव लक्षणं व्याख्यातमिति । अन्वयेनापि बोधेर्लक्षणमाह सम्मइंसणरत्ता अणियाणा सुक्कलेसमोगाढा। इह जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा हवे बोही ॥७०॥ सम्महसणरत्ता-सम्यग्दर्शनरक्ताः तत्त्वरुचयः। अणियाणा-अनिदाना इहपरलोकानाकांक्षाः। सुक्कलेस्सं-शुक्ललेश्यां। ओगाढा–आगाढा प्रविष्टाः । इह---अस्मिन् । जे-ये । मरंति-म्रियते। जीवा-जीवाः । तेसि-तेषां । सुलहा-सुलभा सुखेन लभ्या। हवे-भवेत् । बोही-वोधिः । इह ये जीवा: सम्यक्त्वदर्शनरक्ताः, अनिदानाः, शुक्ललेश्यां प्रविष्टाः सन्तो म्रियन्ते तेषां सुलभा बोधिरिति । यद्यपि पूर्व __आचारवृत्ति-जो अतत्त्व के श्रद्धान सहित हैं, भविष्य में संसार-सुख की आकांक्षारूप निदान से सहित हैं, और अनन्तानुबन्धी कषाय से अनुरंजित योग की प्रवृत्तिरूप कृष्णलेश्या से संयुक्त रौद्र-परिणामी हैं ऐसे जीव यदि यहाँ मरण करते हैं तो पुनः सम्यक्त्व सहित शुभ परिणाम रूप बोधि उनके लिए बहुत ही दुर्लभ है। तात्पर्य यह है कि यदि एक बार सम्यक्त्व होकर छूट जाय तो पुनः अधिक से अधिक यह जीव किंचित् कम अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल तक संसार में भटक सकता है। इसीलिए यहाँ ऐसा कहा है कि सम्यग्दृष्टि का अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल ही शेष रहता है और बोधि सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकती है अतः बोधि का सम्यक्त्व के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है इसीलिए यहाँ पर बोधि का लक्षण ही कहा गया है। अर्थात् प्रश्नकर्ता ने बोधि का लक्षण पूछा था सो बोधि को दुर्लभता और सुलभता को बतलाते हुए सम्यक्त्व के माहात्म्य को बताकर आचार्य ने प्रकारान्तर से बोधि का लक्षण ही बताया है ऐसा समझना। अब अन्वय द्वारा भी बोधि का लक्षण कहते हैं गाथार्थ-जो सम्यग्दर्शन में तत्पर हैं, निदान भावना से रहित हैं और शुक्ललेश्या से परिणत हैं ऐसे जो जीव मरण करते हैं उनके लिए बोधि सुलभ है ।।७०॥ प्राचारवृत्ति—जो तत्त्वों में रुचिरूप सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, इह लोक और परलोक की आकांक्षा से रहित हैं, शुक्ल लेश्यामय निर्मल परिणामवाले हैं ऐसे जीव संन्यास विधि से मरते १. सामान्यवचन है। • यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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