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________________ ४४ चन्द्रप्रमचरितम् [२,५५प्रतिजन्तु यतो जीवः स्वसंवेदनगोचरः । सुख दुःखादिपर्यायैराकान्तः प्रतिभासते ।। ५५ ।। नचास्वविदितं ज्ञानं वेद्यत्वात्कलशादिवत् ।। स्वात्मन्यपि क्रियादृष्टीपादेः स्वप्रकाशनात् ।। ५६ ॥ विषयान्तरसंचारो न च स्यादस्ववेदिनः । अपरापरबोधस्य वेदनीयस्य संभवात् ॥ ५७ ॥ प्रतीत्यादि । यतः यतः कारणात् । प्रतिजन्तु जन्तुं जन्तुं प्रति [इति] प्रतिजन्तु । अव्ययीभावः। स्वसंवेदनगोचरः स्वसंवेदनस्य सूखी अहं दु:खी अहम इत्यादि स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्य गोचरो विषयः । सुखदुःखादिपर्यायः सुखं च दुःखं सुखदु:खं ते आदी येषां ते तथोक्ताः सूखदुःखादयश्च ते पर्यायाश्च तैः, आदिपदेन रागद्वेषादि विपरिणामाः परिगह्यन्ते । आक्रान्तः प्रापितः, जीवः जीवपदार्थः । प्रतिभासते प्रकाशते । भासि दीप्ती । लट् ॥५५॥ न चेत्यादि । ज्ञानं धमि । अस्वविदितं स्वविदितं न; अस्वविदितम् इति साध्यम् । वेद्यत्वात् ज्ञातुं योग्यत्वात् । इति प्रमेयत्वात् हेतुः । कलशादिवत् इति दृष्टान्तः एवं न च । स्वात्मनि स्वरूपे । क्रियावृत्तेः क्रियायाः व्यापारस्य वृत्तः प्रवृतेः । दोपादेः प्रदोपादेः। आदिशब्देन सूर्यादेः, स्वप्रकाशनात् स्वस्य प्रकाशनं प्रभासनं स्वप्रकाशनं तस्मात्, स्वप्रकाशनाभावे परप्रकाशनानुपपत्तिरित्यर्थः ॥५६॥ विषयेत्यादि । अस्ववेदिनः स्ववसायरहितस्य ज्ञानस्य । विषयान्तरसंचारः विषयान्तरेषु परविषयेषु संचार: प्रवृत्तिः । न स्यात् न भवेत् । नहीं होतो' यह हेतु देकर कौन अपना परिहास करावेगा ? ॥५४॥ 'अनुपलब्धि' हेतु देकर जीवका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि जगत्में जितने भी जन्तु हैं, उनमें जीवकी सत्ता स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध है-प्रत्येक जन्तुके-जीवके साथ सुख-दुःख आदि अवस्थाएं लगी हुई हैं, और इसीलिए उन्हें 'मैं सुखी हूँ' ( सुखावस्थामें ) 'मैं दुःखी हूँ' ( दुःखावस्थामें ) इस प्रकारका स्पष्ट आभास होता रहता है ॥५५॥ यदि यह कहो कि 'ज्ञान स्वसंवेदी-अपनेको जाननेवाला नहीं है; क्योंकि उसे दूसरा ज्ञान जानता है, अतः वह वेद्य है । जैसे कलश आदि । जैसे कलश आदि अपनेको नहीं जानते, वैसे ज्ञान भी अपनेको नहीं जानता; क्योंकि अपने में क्रिया नहीं होती। जिस प्रकार नट नृत्यकलामें कितना ही कुशल क्यों न हो, पर वह स्वयं अपने ही कन्धेपर चढ़कर नृत्य नहीं कर सकता। इसी प्रकार ज्ञान कितना ही निर्मल हो, किन्तु वह अपनेको नहीं जान सकता।' ठीक नहीं; क्योंकि अपने में भी क्रिया देखी जाती है। देखिए न, दीपक, चन्द्र और सूर्य आदि अपनेको भी प्रकाशित करते हैं। दीपक आदि अपनेको प्रकाशित करनेसे यदि प्रकाश्य हैं, तो अन्य पदार्थों को प्रकाशित करनेके कारण प्रकाशक भी। इसी प्रकार ज्ञान अपनेको जानता है, अतः वेद्य है और अन्य पदार्थों को जानता है, अतः वेदक भी ॥५६।। यदि ज्ञान अस्वसंवेदी हो तो वह चेतन या अचेतन किसी भी पदार्थको नहीं जान सकता। यदि यह कहो कि 'पहले ज्ञानको दूसरा ज्ञान जान लेता है, अत: पहला ज्ञान पदार्थों १. इनत्वास्व । २. भा आदिः श स आदि। ३. आ 'वि' नास्ति । ४. श स धर्मी । ५. 3 इति हेतुः। ६. = वाच्यम् । ७. श स वृत्ति । ८. =क्रियादृष्टे: क्रियादर्शनात् । ९. श स सूर्यादिः । १०. = प्रमाणाधीनत्वात् प्रमेयस्य । अतः प्रमाणमेव मीमांस्यते । ननु चेदं स्वसंवेदनलक्षणं प्रमाणमसिद्धमिति चेत्; उच्यते-न चेत्यादि । ज्ञानं-स्वसंवेदनम् अस्वविदितं भवति, वेद्यत्वात् । यद्वेद्यं तद् अस्वविदितम् । यथा कलशादिः । [ इति] न च-न वाच्यम् । स्वात्मन्यपि क्रियादृष्टे:-क्रियादर्शनात् । दीपादेः स्वप्रकाशनात् यथा दीपः स्वं प्रकाशयन्नेवार्थं प्रकाशयति । तथा ज्ञानम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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