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चन्द्रप्रमचरितम्
विजयार्ध (६.७३) : हिमवान् और दक्षिण समुद्रके मध्य में स्थित, धातकोखण्डके भरतक्षेत्रका एक पर्वत । विपुलपुर (६.४२) : धातकीखण्ड द्वोपके भरतक्षेत्रका एक पुर । वेलाद्रि (१६.३२) : वीरनन्दोके निर्देशानुसार यह भारतके पूर्व समुद्रके निकटका एक पर्वत है। शिवंकर (११.३२) : धातकीखण्ड द्वीपके भरतक्षेत्रका एक उद्यान । शीतोदा (२.११४) : पुष्करार्धद्वीपके अपर विदेह क्षेत्रकी एक नदी । श्रीपुर (२.१२५) :
सुगन्धि देशका एक समृद्ध नगर । सम्मेदशैल (१८.१५२) : 'शिखरजी' नामसे प्रख्यात पुनीत तीर्थ पर्वत, जो हजारीबाग जिले में है । सुगन्धि (२.११४) : पुष्करार्धद्वीपस्थ पूर्वमन्दरके अपर विदेहका एक देश । सिन्धु (१६.४१) : यह देश सम्प्रति भारतके उत्तरी भागमें 'सिन्ध' नामसे प्रसिद्ध है। हिमाचल (१६.५२) : यह पर्वत भारतके उत्तरमें है, जो हिमाचल या हिमालय नामसे प्रख्यात है।
पारिभाषिक शब्द
अधर्म (१८.६७) : जीवों और पुद्गलोंके ठहरने में सहायक एक अचेतन द्रव्य, जो व्यापक है । अनन्तचतुष्टय (१.३) : अनन्त-अन्त रहित, चतुष्टय-चार ज्ञान, दर्शन, सुख और वोर्य । अनवस्था (२.५८): वह दोष, जिसमें अनन्त अप्रामाणिक कल्पनाओंका विराम न हो। अर्हत् (१.९) : चार घातिया कर्मोंको नष्ट करके पूर्ण ज्ञान आदि गुणोंको प्राप्त करनेवाले अरिहन्त । अवसर्पिणी (१८.३५) : वह काल, जिसमें बौद्धिक और शारीरिक आदि सभी प्रकारके ह्रास होते चले जायें। आर्त (१८.११५) : इष्टवियोग आदि कारणोंसे जन्य दुनि-अशुभ ध्यान । उत्सर्पिणी (१८.३५): वह काल, जिसमें बौद्धिक एवं शारीरिक आदि सभी प्रकारकी वृद्धि होती चली जाये। उपादान (२.६९) वह कारण, जो स्वयं कार्यरूपमें परिणत हो जाये। कषाय (११.४७) : कमरजको आत्माके साथ संश्लेष कराने में जो गोंद जैसा कार्य करे। गणधर (१८.१५२) : तीर्थङ्करोंके शिष्य, जो चार ज्ञानोंसे विभूषित विशिष्ट मुनि होते हैं। गणाधिप (१.९): समवसरणस्थ बारह गणोंके स्वामी-प्रधान गणधर या गणधर । घाति (१४.३६) : आत्माके अनुजीवी ज्ञान आदि गुणों के घातक ज्ञानावरण आदि चार कर्म । धर्म (१८.६७) : जीवों और पुद्गलों में सहायक अचेतन द्रव्य, जो सर्वत्र व्याप्त है । धर्म्य (१८.११५) : आज्ञाविचय आदि चार भेदोंमें विभक्त एक शुभ ध्यान । नय (३.११) : वस्तुके एक अंशको जाननेवाला ज्ञान । नास्तिक (२.४४) : वह व्यक्ति या दर्शन, जो आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक और मोक्षको न माने । निदान (३.५४) : भविष्यत्कालीन भोगोंकी लालसा । परिदेवन (१८.८५) : ऐसा रोना, जिसे सुनकर दूसरोंको भी रोना आ जाये । पुद्गल (१८.७८) : वह अचेतन द्रव्य, जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण हों। प्रमाण (११.३७) : सच्चा ज्ञान । रौद्र (१८.११५): एक अशुभ ध्यान, जो हिंसानन्दी आदि भेदोंसे चार प्रकारका है। शुक्ल (१८.११५) : सर्वोत्कृष्ट शुभ ध्यान । अन्य ध्यानोंकी भांति यह भी चार प्रकारका है। समवसरण (१७.८३) : तीर्थङ्करोंकी दिव्य देशनाकी एक विशिष्ट सभा।
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