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________________ मूलग्रन्थगत विशिष्ट-शब्द-सूची ५५५ अ युक्त विविध शब्द आधि (९.१३) : मानसिक व्यथा कूटस्थनित्य (२.४९) : सर्वथाअङ्कदोललित (५.५८) : गोद- आयसकञ्चुक (१३.२२) : लौह नित्य - का खिलौना कवच कूर्च (१२.८४) : दाढ़ी-मूंछ अङ्गारिणी (४.६४) : अङ्गार- आशीविष (१५.७४) : जहरीला कृत्स्न (२.९२) : समस्त नाग अकण्टक (१२.४१) : क्षुद्र शत्रु क्षुत् (१५.३२) : छोंक ओंसे रहित इड्डुरिका (१३.४९) : पूरी ख अकृष्टपच्य (१२.११७) : बिना पकवान खपुष्प (२.४२) : आकाशका हल जोते ही उत्पन्न होने फूल-अवस्तु वाला अनाज उपप्लुत (२.४७) : बाधित खल्वविल्वविधि (७.४७): 'अकअखिलावसर (३.२०) : आम क स्मात' अर्थ में प्रयुक्त खल्वसभा कच्छवाट (४.७०) : कछबाड़ा विल्वन्याय अगम्य (४.४२) : अजेय या कञ्चुकिन् (१.४८): अन्तःपुर- खेचर (६.७३) : विद्याधर अभेद्य का अधिकारी ग अनलम् (५.५८) : असमर्थ कन्दर (१४.६५) : गुफा गृहमेधिन् (११.६०) : गृहस्थ अन्तरीय (७.८३) : अधोवस्त्र कन्दु (१४.४९) : मिठाई अन्त्यशरीरभाक् (५.८६ ) : कपाली (१४.१९): महादेव घनवम (५.४७): आकाश तद्भवमोक्षगामी कम्र (३.४१) : मनोहर अभिजाति (६.९३) : कुल कलम (१३.४२) : धान चक्ररत्न (७.१):सम्राटके चौदह अभिशत्रु (१५.२१) : शत्रुके काकली (१४.६५) : मधुर ध्वनि रत्नोंमें पहला अभिमुख काकतालीय (४.२६) : 'अक- चर (१२.१७) : गुप्तचर अर्चा (१७.८८): जिनप्रतिमा स्मात्' अर्थ में प्रयुक्त काक- चारणमुनि (३.४४) : चारण अवर्षण (१६.५) : वृष्टि न तालीय न्याय ऋद्धिके धारक आकाशहोना--सूखा कापिल (२.८२) : सांख्य चारी मुनि अष्टशोभा (६.५६):मार्जन आदि कायिन् (१७.२६): कार्याभिअष्टापदवृत्ति (१.५१): अष्टापद लाषी जलधियोषित् (२.१२४) : नदी की भांति स्वयंको हानिकुथ (१३.१३) : झूल जलराशियोषित् (१.१५) : नदी कर अविचारित व्यापार कुलपुत्रिका (३.३३) : कुलीन जात्यन्ध (१२.१३) : जन्मान्ध स्त्री आजिकण्डु (६.२४) : युद्धको कुलमेदिनीधर (१.१९) : कुला- तनुच्छद (१५.६) : कवच खुजलाहट तरसा (१२.१०६) : शीघ्र १. अष्टापद आठ पैरोंका कुत्तेके आकार का एक हिंसक पश होता है। वह जिस जानवरका शिकार करता है, उसीके ऊपर बैठा रहता है । फलतः उसमें उत्पन्न हुए कोड़ोंसे वह स्वयं मारा जाता है। विशेषके लिए द्विसन्धानके 'न विक्रमः शरभनिपातसन्तिभः....' इत्यादि श्लोक (२.२०) की संस्कृत टीका द्रष्टव्य है। २. वेदान्ती (ब्र० सू० शाङ्करभाष्य पृ० २०) आत्माको कूटस्थनित्य मानते हैं। यद्यपि सांख्योंकी भी यही मान्यता है, पर वह यहाँ विवक्षित नहीं है । विशेषके लिए 'तत्त्वसंसिद्धिः' (राज विद्या-मन्दिर, बी० २४।१०९, कश्मीरीगंज, वाराणसी-१) अवलोकनीय है। आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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