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________________ ४४३ -१८, ७९] अष्टादशः सर्गः तन्न युक्तं क्रियायां हि लोके काल इति ध्वनिः । प्रवृत्तो गौणवृत्त्यैव वाहीक इव गोध्वनिः ॥७६।। न च मुख्याहते गौणकल्पना नरसिंहवत् । तस्माद् द्रव्यस्वभावोऽन्यो मुख्यः कालोऽस्ति कश्चन ॥७७।। रूपगन्धरसस्पर्शशब्दवान् पुद्गलः स्मृतः। अणुस्कन्धप्रभेदेन द्विस्वभावतया स्थितः॥८॥ पृथिव्यादिस्वरूपेण स्थूलसूक्ष्मादिभेदतः । छायातपादिरूपेण बहुधा स विभिद्यते ॥७६।। वाचि लट् ॥७५।। तदिति । तत् उदयादि । युक्तं युक्तियुक्तम् । न न भवति । लोके भुवने । क्रियायां । (?) | काल इति कालद्रव्यमिति । ध्वनिः शब्दः । वाहके भारवाहके। गोध्वनिः गौः इति शब्द इव । गौणवृत्त्यैव गौणवर्तनेनैव । प्रवृत्तः स्थितः ॥७६॥ नेति । न च मुख्याद् ऋते मुख्यं पदार्थ विना । नरसिंहवत् नरसिंह इव । गौणकल्वना गौणस्य कृल्पना भवितुमर्हति । यथा असाधारणं पराक्रमगुणं दृष्ट्वा नरः सिंहत्वेनोपचर्यते-नरो नरसिंहत्वेन व्यवह्रियते । परं पराक्रमवन्तं वास्तविक सिंहं विना नरसिंह इति गौणप्रयोगोऽसंभव एव । तस्मात् तस्मात् कारणात् । द्रव्यस्वभावः द्रव्यस्वभावोपेतः । कश्चन कश्चित् । अन्यः क्रियामात्रत्वेन स्वीकृतव्यवहारकालादु भिन्नः । मुख्यः काल: निश्चयकालः। अस्ति वर्तते । 'कल्यते ज्ञायते निश्चीयते सङ्ख्यायते समयादिभिः पर्यायमख्यः कालो निर्णीयते यः स कालः । ॥७७॥ रूपेति । रूपगन्धरसस्पर्शशब्दवान् रूपेण गन्धेन रसेन स्पर्शन शब्देन च युक्तः । पुद्गल: पुद्गलद्रव्यमिति । स्मृतः ज्ञातः । अणुस्कन्धप्रभेदेन अणूनां सूक्ष्माणां स्कन्धानां स्थूलानां प्रभेदेन विकल्पेन । द्विस्वभावतया द्विरूपतया। स्थितः प्रवृत्तः ॥७८॥ पृथिव्यादीति । सः पुद्गलः । स्थूलसूक्ष्मादिभेदतः स्थलादीनां बादरादीनां सूक्ष्मादीनां भेदतो विकल्पात् । पृथिव्यादिस्वरूपेण पृथिव्यादीनाम्, आदिशब्देन अप्तेजोवाय्वादीनां स्वरूपेण स्वभावेन। छायातपादिहैं ॥७५॥ उनका यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि उदय आदि क्रियाओंके होनेपर लोक में जो 'काल' व्यवहार होता है, वह गौण रूपसे ही ( लक्षणासे ही ) प्रवृत्त हुआ है। जैसे वाहीकमें लक्षणासे 'बैल' का व्यवहार होता है। वाहीक-हल चलानेवाला मनुष्य, मनुष्य है और बैल, बैल है, दोनोंमें अत्यन्त भेद है, पर बैल में जो जड़ता और मन्दता होती है, वही हल चलानेवालेमें भी यदि हो तो उसे भी लोग गौण रूप (लक्षणा या उपचार) से बैल कह दिया करते हैं । इसी तरह निश्चयकाल एक पृथक् पदार्थ है और सूर्यके उदय आदिकी क्रियाएँ पृथक्, फिर भी इन क्रियाओंमें जो 'काल' व्यवहार होता है वह गौण है ॥७६॥ और मुख्यके बिना गौण व्यवहारकी कल्पना ही नहीं हो सकती। सिंहके बिना मनुष्य में नरसिंहका व्यवहार नहीं हो सकता । सिंह पराक्रमी होता है । यदि कोई मनुष्य भी पराक्रमी हो तो उसमें भी 'सिंह' का व्यवहार होने लगता है। अतएव काल नामक कोई मुख्य पदार्थ अवश्य है, जो उदय आदिमें होनेवाले व्यवहार कालसे भिन्न है; क्योंकि उसमें द्रव्यका लक्षण घटित होता है ॥७७॥ जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, उसे पुद्गल कहते हैं, और वह अणु एवं स्कन्धके भेदसे दो प्रकारका है । उसमें पूरण और गलनका स्वभाव पाया जाता है, इसीलिए तो वह पुद्गल कहलाता है, और इसीलिए उसमें अणु और स्कन्ध भेद घटित हो जाते हैं ॥७८॥ स्थूल और सूक्ष्म आदि भेदोंकी दृष्टिसे वह पुद्गल पृथिवी आदिके रूपमें या छाया एवं आतप आदिके रूप १. अ कस्य न । २. म शब्दवाः । ३. = कथनम् । ४. = लक्षणयैव । ५. आ श अस्य श्लोकस्य व्याख्या नोपलभ्यते। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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