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________________ चन्द्रप्रमचरितम् (ख) गुरुपरम्परा-वीरनन्दीके गुरुका नाम अभयनन्दी, दादा गुरुका नाम 'विबुध' गुणनन्दी और परदादा गुरुका नाम गुणनन्दी था। वीरनन्दी असाधारण विद्वान थे, जैसा कि उनकी कृतिके अध्ययन एवं अन्य ग्रन्थोंके उल्लेखोंसे ज्ञात होता है। विद्वत्ता तथा प्रभाव (क) विद्वत्ता-चं० च० के क्रियापदोंके देखनेसे स्पष्ट है कि वीरनन्दोका ब्याकरणशास्त्रपर पूर्ण अधिकार रहा । द्वितीय सर्ग ( श्लो० ४४-११० ) यह सिद्ध करता है कि वीरनन्दी जैन व जैनेतरदर्शनोंके अधिकारी विद्वान् थे। तत्त्वोपप्लव दर्शनको समीक्षाके सन्दर्भमें उन्होंने जो युक्तियाँ दी है, वे अष्टसहस्री आदि विशिष्ट दार्शनिक ग्रन्थों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अन्तिम सर्ग वीरनन्दीको सिद्धान्त मर्मज्ञताको व्यक्त करता है। चं० च० के तत्तत्प्रसङ्गोंमें चचित राजनीति, गजवशीकरण और शकुन-अपशकुन आदि विषय उनकी बहुज्ञताको प्रमाणित करने में सक्षम हैं। (ख) प्रभाव-अभयनन्दोके शिष्य होने के नाते वीरनन्दी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके सतीर्थ रहे, जिन्होंने शौरसेनी प्राकृतमें गोम्मटसार ( जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड ), त्रिलोकसार, लब्धिसार और क्षपणासार आदि विशिष्ट ग्रन्थोंकी रचना की थी, फिर भी उन्होंने कर्मकाण्डमें अपनेको वीरनन्दीका 'वच्छो" ( वत्स ) लिखा है, और एकाधिक बार उनका नामोल्लेख किया है। वीरनन्दीके नामके आगे 'णाह' ( नाथ ) और चंद ( चन्द्र ) का प्रयोग और मङ्गलाचरणके प्रसङ्गमें उनका बार-बार स्मरण किया जाना उनके प्रभावका द्योतक है। वादिराज सूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें नामोल्लेखपर्वक उनकी कृति-चं. च०की सराहना की है। कविवर दामोदरने अपने चन्द्रप्रभचरितमें उन्हें 'कवीश' बतलाया है और वन्दन भी किया है। पण्डित गोविन्दने अपने पुरुषार्थानुशासनमें उनका उल्लेख धनञ्जय, असग और हरिचन्द्रसे भी पहले किया है और उनके काव्यको प्रशंसा भी । पण्डित प्रवर आशाधरने उनके चं० च० के एक (४, ३८) पद्य को उद्धृत करके अपने सागारधर्मामृतके न्यायोपात्त-इत्यादि (१,११) श्लोकमें चर्चित कृतज्ञता गुणका समर्थन किया है, और इष्टोपदेशकी अपनी टीकामें भी चं० च० का एक पद्य उद्धृत किया है। ___ जीव० च० तथा धर्मश०के कर्ता महाकवि हरिचन्द्रने धर्मशर्माभ्युदयको रूपरेखा चं० च० को सामने रखकर बनायी। चं० च० और धर्मश० की मङ्गलाचरणपद्धति, पुराणोंके आश्रयकी सूचना, दार्शनिक चर्चा और धर्मदेशना प्रायः एक-सी है। धर्मदेशनाके कतिपय पद्योंके चरण-के-चरण मिलते हैं । यदि अनुक्रम और भावकी समानतापर ध्यान दिया जाये तो लगभग आधी धर्मदेशना दोनोंकी एक जैसी ही सिद्ध होगी। अतएव यह स्पष्ट है कि समकालीन और उत्तरकालीन अनेक विद्वानोंपर वीरनन्दीकी विद्वत्ताका महान् प्रभाव रहा है। १. जस्स पायपसायेण शंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो । वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं गा० ४३६॥ २. णमिऊण अभयणदिं सुदसागरपारगिंदणंदिगरूं। वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥गा०७८५॥ णमह गुणरयणभूसणसिद्धंतामियमहद्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिदणंदिगुरुं ॥गा०८९६॥ ३. चन्द्रप्रभाभिसंबद्धा रसपुष्टा मनः प्रियम् । कुमुदतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ॥१.३०॥ ४. चन्द्रप्रभजिनेशस्य चरितं येन वणितम् । तं वीरनन्दिनं वन्दे कवीशं ज्ञानलब्धये ॥१.१९।। ५. श्रीवीरनन्दिदेवो धनञ्जयासगौ हरिश्चन्द्रः। व्यधुरित्याद्याः कवयः काव्यानि सदुक्तियुक्तीनि ॥-'जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह' पृ० १२७ से उद्धृत । ६. तुलना कीजिए-चं० च०१८, २ तथा धर्मश० २१,८; चं० च० १८, ७८ तथा धर्मश० २१, ९०; चं० च० १८, ८८ तथा धर्मश० २१, ९९ इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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