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प्रस्तावना
प्रशस्त विचारधारा
वीरनन्दी साध थे, अतः उनका मन विरागतासे प्रभावित रहा। इसका आभास उनके चं च० में ही यत्र-तत्र उपलभ्य है। लगभग आठ स्थलोंपर उन्होंने विरक्तिके विचारों एवं नरेशोंके दीक्षित होनेका वर्णन किया है । प्रायः ऐसे ही प्रसङ्गोंमें उनकी प्रशस्त विचारधाराकी झलक मिलती है, जो इस प्रकार है
प्रत्येक जन्तुका जीवन मरणसे और यौवन बुढ़ापेसे आक्रान्त है-इसे देखता हुआ भी जड़ मनुष्य अपने हितको ओर ध्यान नहीं देता, यह खेद और आश्चर्यको बात है ॥१, ६९।। यह मनुष्य जन्म अशुभकर्मोदयको मन्दतासे किसी तरह काकतालीय न्यायसे प्राप्त हुआ है। अतः इसे पाकर चतुर्गतिपरिभ्रमणके वृत्तान्तको समझनेवाले व्यक्तिको आत्महितके विषयमें प्रमाद करना उचित नहीं है ॥४,२६॥ अनिष्ट संयोग और इष्टवियोग समानरूपसे सभीके साथ लगे हुए हैं-इस बातको सोचकर बुद्धिमान् मानव विषाद करके अपने मनको खिन्न नहीं करता ।।५, ८७॥ बुद्धिमान् मानव खूब आगा-पीछा सोचकर कार्य करता है या फिर उसका आरम्भ ही नहीं करता: क्योंकि सहसा कार्य करना पशओंका धर्म है. वह मानवमें कैसे हो सकता है ? ॥१२, १०२॥ पुत्र वह है, जो अपने कुलका विस्तार करे; मित्र वह है, जो विपत्ति में साथ दे; राजा वह है, जो प्रजाको रक्षा करे और कवि वह है, जिसके वचन नीरस न हों ॥१२, १०८॥ प्रेमसे बढ़कर कोई बन्धन नहीं है; विषयसे बढ़कर कोई विष नहीं है; क्रोधसे बढ़कर कोई शत्रु नहीं है और जन्मसे बढ़कर कोई दुःख नहीं है ॥१५, १४३॥ ऐसे विचार चं० च० में यत्र-तत्र विखरे पड़े हैं। विस्तारका भय न होता तो उन सभीका संकलन यहाँ प्रस्तुत किया जाता।
___ अन्य वीरनन्दी-प्रस्तुत वीरनन्दीके अतिरिक्त अन्य वीरनन्दी भी हुए हैं। (१) आचारसारके प्रणेता, जो मेधचन्द्र विद्यके शिष्य थे, (२) महेन्द्रकोर्तिके शिष्य एवं कलधौतनन्दीके प्रशिष्य । (३) 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' उपाधिसे विभूषित और ( ४ ) पण्डित महेन्द्रके शिष्य । वीरनन्दीका समय
चं० च० के रचयिता-वीरनन्दीने अपनी इस कृतिमें कहीं पर भी अपने समयका उल्लेख नहीं किया, पर अन्य आचार्योंके, जिन्होंने अपनो कृतियोंमें उनके नामका उल्लेख किया है, समयके आधारपर उनका समय सुनिश्चित है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने कर्मकाण्ड में उनके नामका तीन बार उल्लेख किया है जैसा कि पीछे लिखा जा चुका है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे नेमिचन्द्र सि० च० के समकालीन हैं। प्रेमीजीने नेमिचन्द्र सि० स० का समय विक्रमकी ग्यारहवीं शतीका पूर्वार्द्ध सिद्ध किया है, अतः चं० च० के कर्ताका भी यही समय सिद्ध होता है । बलदेव उपाध्यायने चं० च० के कर्ता वीरनन्दीका समय १३०० ई० लिखा है, और डॉ० बहादुरचन्दने भी लगभग यही समय बतलाया है, जो भ्रममूलक है।
वादिराज सरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें वीरनन्दी और उनके चं० च० की प्रशंसा की है. जिसको समाप्ति शक स० ९४७ ( वि० सं० १०८२ ) में समाप्त हुई थी। अत: वीरनन्दी इनसे पूर्ववर्ती ही ठहरते हैं । ऐसी स्थितिमें वीरनन्दीका सुनिश्चित समय विक्रमको ग्यारहवीं शतीका पूर्वार्ध ही सिद्ध होता है ।
१. इससे उक्त दोनों ग्रन्थोंके कर्ता नेमिचन्द्र सि० च० और उनके सहयोगियों-वीरनन्दी, इन्द्रनन्दी, कनकनन्दी-का समय भी विक्रमकी ग्यारहवीं सदीका पूर्वार्ध ठहरता है ।-जैन साहित्य और इतिहास पृ० २७४ । २. वीरनन्दी ( १३०० ई० )-चन्द्रप्रभचरित ।-संस्कृत साहित्यका इतिहास पृ० २७३ । ३. संस्कृत साहित्यका इतिहास (१३वीं शताब्दीके महाकाव्य) प०८६८। ४. 'चन्द्रप्रभाभिसंबद्धा रसपष्टा मनः प्रियम् । कुमुदतीव नो धत्त भारती वीरनन्दिनः । पार्श्वनाथच० १, ३०॥ ५. 'शाकाब्दे नगवाधिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने, मासे कार्तिकनाम्नि बुद्धिमहिते शुद्ध तृतीयादिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमती जैनी कथेयं मया, निष्पत्ति गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ॥पाश्वनाथच० प्र०प०५।।
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