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प्रस्तावना
वीरनन्दी का चं० च० अपनी विशेषताओंके कारण संस्कृत महाकाव्यों में विशिष्ट स्थान रखता है । कोमल पदावली, अर्थ सौष्ठव, विस्मयजनक कल्पनाएँ, अद्भुत घटनाएँ, विशिष्ट संवाद, वैदर्भी रीति, ओज, प्रसाद तथा माधुर्य गुण, विविध छन्दों और अलङ्कारोंकी योजना, रसका अविच्छिन्न प्रवाह, प्राज्ञ्जल संस्कृत, महाकाव्योचित प्रासंगिक वर्णन और मानवोचित शिक्षा आदिकी दृष्टिसे प्रस्तुत कृति अत्यन्त श्लाघ्य है ।
प्रस्तुत कृति में वीरनन्दीकी साहित्यिक, दार्शनिक और सैद्धान्तिक विद्वत्ताकी त्रिवेणी प्रवाहित है । साहित्यिक वेणी (धारा ) अथसे इति तक अविच्छिन्न गति से बही है । दार्शनिक धाराका सङ्गम दूसरे सर्गमें हुआ है, और सैद्धान्तिक धारा सरस्वतीकी भाँति कहीं दृश्य तो कहीं अदृश्य होकर भी अन्तिम सर्ग में विशिष्ट रूप धारण करती है । पर कविकी अप्रतिम प्रतिभाने साहित्यिक धाराको कहीं पर भी क्षीण नहीं होने दिया । फलतः दार्शनिक और सैद्धान्तिक धाराओं में भी पूर्ण सरसता अनुस्यूत है ।
अश्वघोष और कालिदासकी भाँति वीरनन्दोको अर्थ चित्रसे अनुरक्ति है । यों इन तीनों महाकवियोंकी कृतियों में शब्दचित्र के भी दर्शन होते हैं, पर भारवि और माघकी कृतियोंकी भाँति नहीं, जिनमें शब्द चित्र आवश्यकताकी सीमा से बाहर चले गये हैं ।
बुद्धचरित, सौन्दरनन्द, रघुवंश और चन्द्रप्रभचरित इन चारोंको रचना शैली में पर्याप्त साम्य है, फिर भी इतना अवश्य है कि वीरनन्दीको कालिदासकी अपेक्षा अश्वघोषने अधिक मात्रामें प्रभावित किया है । जान पड़ता है कि चं० च० का नामकरण बु० च० से और सर्ग संख्या सौ० न० की सर्ग संख्यासे प्रभावित है । बु० च० में वर्णित भ० बुद्धके जन्म से निर्वाण तक के जीवन वृत्तकी भाँति चं० च० में चन्द्रप्रभका जीवन वृत्त वर्णित है। हाँ, चन्द्रप्रभचरित में वर्णित चन्द्रप्रभके पिछले जन्मोंका वृत्त उसकी अपनी विशेषता है, जो जैनेतर काव्यों में नहीं है । अश्वघोषको कृतियोंमें बौद्ध धर्मके अनुसार जिस तरह मानव जन्म के लाभ, सांसारिक सुखकी असारता बतलायी गयी है, दार्शनिक चर्चा की गयी है और पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग किया गया है, उसी तरह वीरनन्दीको कृति चं० च० में जैन धर्मके अनुसार । अथ च अश्वघोषकी भाँति वीरनन्दको भी शान्तरस अभिप्रेत है । इसी आधारपर जान पड़ता है कि वीरनन्दी अश्वघोष से से अधिक प्रभावित रहे ।
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चं० च० में वर्णित चन्द्रप्रभका जीवनवृत्त अतीत और वर्तमानकी दृष्टिसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रारम्भके पन्द्रह सर्गों में अतीतका और अन्तिम तीन सर्गों में वर्तमानका वर्णन है । इस लिए अतीत वर्णनसे वर्तमानका वर्णन कुछ दब-सा गया है । चन्द्रप्रभको प्रधान पत्नीका नाम कमलप्रभा है । नायिका होने के नाते इनका विस्तृत वर्णन होना चाहिए था, पर केवल एक ( १७, ६० ) पद्य में इनके नाम - मात्रका ही उल्लेख किया गया है। इसी तरह इनके पुत्र वरचन्द्र की भी केवल एक ( १७, ७४ ) पद्य में ही नाममात्र की चर्चा की गयी है । दानोंके प्रति बरती गयो यह उपेक्षा खटकने वाली है । दूसरे सर्गमें की गयी दार्शनिक चर्चा अधिक लम्बी है । इसके कारण कथाका प्रवाह कुछ अवरुद्ध-सा हो गया है । इतना होते हुए भी कवित्व की दृष्टिसे प्रस्तुत महाकाव्य प्रशंसनीय है । क्लिष्टता और दूरान्वयके न होनेसे इसके पद्य पढ़ते ही समझ में आ जाते हैं । इसकी सरलता रघुवंश और बुद्धचरितसे भी कहीं अधिक है ।
[१४] ग्रन्थकार - परिचय
चं० च० के अन्त में मुद्रित ग्रन्थकारको प्रशस्ति ( श्लो० १४ ) से उनका निम्नलिखित परिचय प्राप्त होता है
(क) संघ और गण - प्रन्थकार वीरनन्दी 'नन्दी' संघके 'देशीय' गण में हुए हैं । मूल संघ अर्थात् दि० सम्प्रदायकी चार शाखाएँ हैं - ( १ ) नन्दी, (२) सिंह, (३) सेन और ( ४ ) देव । इन शाखाओंकी प्रतिशाखाएँ गण, गच्छ आदि नामोंसे प्रसिद्ध | नन्दी संघमें जो कई गण, गच्छ आदि हैं, देशीय गण उन्हीं में से एक है ।
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