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________________ २ चन्द्रप्रमचरितम् (ख ) अर्थालङ्कार चं० च० में जिन अर्थालङ्कारोंका प्रचुरमात्रामें सन्निवेश है, उनके नाम इस प्रकार हैं पूर्णोपमा ( १,३१), मालोपमा (१६,१७), लुप्तोपमा ( ११,१५ ), उपमेयोपमा ( १०,२७), प्रतीप (३,३ ) रूपक (१५,५३ ), परम्परितरूपक ( १,१०), परिणाम (५,६०), भ्रान्तिमान् (१,२६;१,२७,६,९;९,६,९,३०,१५,५,१४,३२,१४,३८ आदि ), अपहनुति (५,४३ ), कैतवापहनुति (१४,६४), उत्प्रेक्षा ( १,१३ ), अतिशय ( १६,३६), अन्तदीपक ( १,४५ ), तुल्ययोगिता ( १५,१३५), प्रतिवस्तूपमा ( १,६३ ), दृष्टान्त ( ११,२१ ), निदर्शना ( ४,२४ ), व्यतिरेक (१,४४ ), सहोक्ति ( ३,६६ ), समासोक्ति ( १,१६ ), परिकर ( १७,६२ ), श्लेष ( २,१४२ ), अप्रस्तुतप्रशंसा ( १५,१३४ ), पर्यायोक्त ( १६,२६ ), अन्य प्रकारका पर्यायोक्त ( ९,२४), विरोधाभास (१,३७), विभावना ( १,५९ ), अन्य प्रकारको विभावना ( ६, ६६ ), विशेषोक्ति ( ४, ६ ), विषम ( १५, १३० ), अधिक ( २, २४ ), अन्योन्य ( १४, १४), कारणमाला ( ४,३७, ४, ३८ ), एकावली ( १, ३५ ) परिवृत्ति ( ९, ४३), परिसंख्या ( २, १३८), समुच्चय (३, ४९), अर्थापत्ति (१, ७३), काव्यलिङ्ग (४, १९), अर्थान्तरन्यास (४, ११ ), तद्गुण ( १४, २९ ), लोकोक्ति ( २, २६ ), स्वभावोक्ति ( १४, ६३ ), उदात्त (२, १२८ ), अनुमान ( ९, १३ ), रसवत् ( १५, ८), प्रेय ( १५, १४४ ), ऊर्जस्वित् (८, २० ), समाहित ( ८, ४५ ), भावोदय ( ८, २१ ), संसृष्टि ( १, १० ) और सङ्कर' ( ८, ४३ ) । [१२] चं० च० में छन्द योजना चं० च० में एक मात्रिक ( औपच्छन्दसिक ) और तीस वणिक छन्द प्रयुक्त हुए हैं, जिनके नाम निम्नलिखित हैं ( १ ) अतिरुचिरा, ( २ ) अनुष्टुप्, ( ३ ) इन्द्रवज्रा, ( ४ ) उद्गता, ( ५ ) उपजाति, ( ६ ) उपेन्द्रवज्रा, (७) औपच्छन्दसिक, (८) क्षमा, (९) जलधरमाला, (१०) जलोद्धतगति, (११) द्रुतविलम्बित, ( १२ ) नर्कुटक, ( १३ ) पुष्पिताग्रा, ( १४ ) पृथ्वी, ( १५ ) प्रमिताक्षरा, (१६) प्रहर्षिणी, (१७) भ्रमरविलसित, ( १८ ) मन्दाक्रान्ता, ( १९ ) मालिनी, (२०) रथोद्धता, (२१) वंशस्थ, .( २२ ) वंशपत्रपतित, ( २३ ) वसन्ततिलका, ( २४ ) वसन्तमालिका, ( २५ ) शार्दूलविक्रोडित, ( २६ ) शालिनी, ( २७ ) शिखरिणी, ( २८ ) सुन्दरी, ( २९ ) स्रग्धरा, ( ३० ) स्वागता, ( ३१ ) हरिणी। [१३] चं० च० की समीक्षा वीरनन्दीको चन्द्रप्रभका जो संक्षिप्त जीवनवृत्त प्राचीन स्रोतोंसे समुपलब्ध हुआ, उसे उन्होंने अपने चं० च० में खूब ही पल्लवित किया है। चन्द्रप्रभके जीवन वृत्तको लेकर बनायी गयीं जितनी भी दि०-श्वे० कृतियाँ सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें वीरनन्दीको प्रस्तुत कृति ही सर्वाङ्गपूर्ण है। इसकी तुलनामें उ० पु० गत चं० च० भी संक्षिप्त-सा प्रतीत होता है, जो उपलब्ध अन्य सभी चन्द्रप्रभचरितोंसे, जिनमें हेमचन्द्रका चं० च० भी शामिल है. विस्तत है। अतः केवल कथानकके आधार पर ही विचार किया जाये तो भी यह मानना पड़ेगा कि वीरनन्दीको सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है। सरसताकी दृष्टिसे तो इनकी कृतिका महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है । १. सभी अलङ्कारोंके लक्षण घटाने में प्रायः कुवलयानन्दका उपयोग किया गया है। २. सभी छन्दोंके लक्षण वृत्तरत्नाकरके अनुसार घटाये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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