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________________ ३३१ -१४, २०] चतुर्दशः सर्गः जयन्रुचा निस्तमसो समुत्कः शीतेतरांशू तमसो समुत्कः । द्रष्टुं चमून्या जगदेकपाली बलेन साक्षाजगदे कपाली ।।१९॥ निषेव्यविवरो वरोऽविविधनिरालंकृतः सदन्ति चमरोऽमरौपहितमाधवीमण्डपः। विकासिकमलोऽमलोपलविचित्रभाभासुरो न विस्मयमयं नगः प्रविद्धाति कस्येक्षितः ॥२०॥ अपां जलानां यन्त्रिषु यन्त्रयुक्तेषु । गह्वरेषु गुहासु । निदाधं ग्रीष्मम् । अधोगामिघनेषु अधो अधोभागे गामिनो गमनशोला घना मेघा येषु तेषु । सानुषु तटेषु । वर्षाः प्रावृटकालान् । गमयन्तीति प्रत्येकमभिसंबध्यते । दीपकम् ॥१८॥ जयन्निति । निस्तमसौ निर्गतं तमो ययोस्तो। शीतेतरांश शीतः शीतल इतर उष्णः शीतेतरी अंशू किरणौ ययोस्ती-चन्द्रसूर्यो। रुचा कान्त्या। जयन् निर्जयन् । तं रत्नकूटगिरिम् । द्रष्टुं वीक्षणाय । समुत्कः संतुष्टः । समुत्क: समुन्नतं कं मस्तकं यस्य सः। बलेन सामर्थ्येन । साक्षात् प्रत्यक्षम् । कपाली रुद्रः । जगदेकपाली जगतो भुवनस्य एकपाली मुख्यपालकः । असौ राजा। चमून्या सेनानायकेन। जगदे भाष्यते । यमकम ॥१९॥ निषेव्येति । निषेव्यविवरः निषेव्यमाश्रयणीयं विवरं गहरं यस्य सः। वरः प्रशस्तः । गिविधनिर्झरालंकृतः विविधैर्नानाप्रकारैः प्रवाईरलकृतो भूषितः। सदन्तिचमरः दन्तिभिगंजैश्चमरैश्चमरमगैश्च युक्तः। अमरोपहितमाधवीमण्डपः अमरैर्देवैरुपहित आश्रितो माधवीनां यथिकालतानां मण्डपो यस्य सः। विकासिकमल: विकासीनि विकसनशीलानि कमलान्यम्बुरुहाणि यस्मिन् सः। अमलोपलविचित्रमाभासुरः अमलानां निर्मलानामुपलानां शिलातलानां विचित्रया बहुविधया भया कान्त्या भासुरो दीप्रः । ईक्षितः दृष्टः । अयं नगः मणिकूटगिरिः। कस्य पुरुषस्य । विस्मयम् आश्चर्यम् । न प्रविद बिताया करते थे। तथा वर्षाऋतुको वे उन शिखरोंपर आरामसे बिताते थे, जहाँ मेघ पहुँच ही नहीं सकते थे, उनसे बहुत नीचे रह जाते थे। क्या सर्दी, क्या गर्मी और क्या बरसात तीनों ही मौसमोंमें देवलोग वहां सुख पूर्वक रहते थे। वहाँको उष्ण गुफाओंमें हिमका कभी कोई असर नहीं पहुंच पाता था। हाँ, वहाँ रहनेवाले देव उसका स्मरण अवश्य कर लेते थे, कि प्रवासके अवसरपर अमुक स्थान देखा था, जहाँ अत्यधिक हिमपात हो रहा था। इसी तरह अन्य स्थानोंपर ग्रीष्म और वर्षा में वह सुख नहीं मिल सकता, जो मणिकूट पर्वतके निवासियोंको अनायास ही प्राप्त हो रहा था। वह पर्वत सभी ऋतुओंमें सुखद था । इसीलिए वहाँ देवलोग भी निवास करते थे ॥१८॥ राजा पद्मनाभने अपने देहकी कान्तिसे चन्द्रमाको और दीप्तिसे सूर्यको मात कर दिया था, जो अन्धकारसे सर्वथा मुक्त थे । पद्मनाभ सारे जगत्का एक मात्र रक्षक था और बलमें तो साक्षात् शंकर । उसे पर्वतकी विशेषताओंके देखनेसे बड़ा हर्ष हुआ और उत्सुकता भी। पर्वत देखनेके लिए उसे उत्सुक जानकर सेनापतिने यों कहना प्रारम्भ किया-॥१९॥ इसकी गुफाएं रहने योग्य हैं, यह अनेक प्रकारके झरनोंसे सुशोभित है; इसपर कहीं हाथी घूम रहे हैं तो कहीं चमरी मृग विचर रहे हैं; इसके माधवीलताके मण्डपोंमें देवलोग भी आकर ठहर जाते हैं; इसपर कमल खिले हुए हैं; निर्मल मणियों और शिलाओंको अनोखी प्रभासे यह सभी ओरसे प्रकाशित है; अतएव निश्चय ही यह सभी पर्वतोंसे श्रेष्ठ है । इसे देखकर किसे आश्चर्य नहीं होगा? इसे देखकर तो ब्रह्मदेव ( कस्य-ब्रह्मदेवस्य ) को भी अचरज होगा १. = यन्त्राणि सन्ति येषु, तेषु । २. = शिखरेषु । ३. = समुत्सुकः । ४. = माधवोलतानां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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