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________________ चन्द्रप्रमचरितम् अद्भुतरस-चं० च० ( ५, ७२.७३ ) में अद्भुत रसका आस्वाद होता है, जहाँ आकाश मार्गसे उतरते हुए दीप्ति सम्पन्न एक चारण मुनिको अकस्मात् देखते ही अजितंजय और उसकी सभाका विस्मित होना वर्णित है। वात्सल्यरस-चं० च० ( १७, ४३-४८ ) में वात्सल्य रसका भी परिपोष हुआ है, जहाँ शिशु चन्द्रप्रभकी बाललीलाको देख कर उनके माता-पिता आनन्दका अनुभव करते हैं। भरत मुनिकी भांति विश्वनाथ कविराज ( सा. द. ३. २५१ ) ने इसे स्वतन्त्र रस माना है। यदि यह रस वीरनन्दीको मान्य न रहा हो, तो उक्त सन्दर्भ में पुत्र विषयक रतिभाव स्वीकार्य होना चाहिए। भक्तिरस, लौल्यरस और स्नेहरस आदि सर्वमान्य नहीं हैं, अतः चं० च० में इन्हें खोज निकालना निष्फल होगा। इस तरह चं० च० में अङ्गाङ्गीभावसे प्रायः सभी रस प्रवाहित हुए हैं । [११] चं० च० में अलङ्कार योजना चं० च० में जिन अलङ्कारोंका सन्निवेश है, उनका एक-एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है। (क) शब्दालङ्कार छेकानुप्रास-दिव्यान् दिव्याकारकान्तासहायो भोगान् भोगी निर्विशन्निर्विशङ्कः । राज्यं राज्यभ्रंशिताकारलोकश्चक्रे चक्री पूर्वपुण्योदयेन ॥७,९४ यहाँ व्यञ्जनोंकी एक-एक बार आवृत्ति होनेसे छेकानुप्रास है । इसमें स्वरसाम्य नहीं देखा जाता। वृत्त्यनुप्रास-इत्थं नारीः क्षणरुचिरुचः क्षोभयन्नीतिरक्षः क्षीणक्षोभः क्षपितनिखिलारातिपक्षोऽम्बुजाक्षः । क्षोणीनाथो विनिहितमहामङ्गलद्रव्यशोभं प्रापत्तेजोविजिततपनो मन्दिरद्वारदेशम् ॥७,९१ यहाँ व्यञ्जनोंकी अनेक बार आवृत्ति होनेसे वृत्त्यनुप्रास, और आनुनासिक वर्गों की आवृत्तिके कारण श्रुत्यनुप्रास भी है। इनके अतिरिक्त लुप्तोपमा ( अर्थालङ्कार ) भी विद्यमान है। श्रुत्यनुप्रास-नयेन नृणां विभवेन नाकिनां गतस्पृहाणां विनयेन योगिनाम् । महीभुजामेष निजेन तेजसा तनोति चित्ते सततं चमत्कृतिम् ॥११,५२ आनुनासिक वर्णोंकी आवृत्ति होनेसे यहाँ श्रुत्यनुप्रास है, और उत्तरार्धमें 'त' की अनेक बार आवृत्ति होनेसे वृत्त्यनुप्रास भी । इनके अतिरिक्त दीपक ( अर्थालङ्कार ) भी है । अन्त्यानुप्रास-मानोन्मादव्यपनयचतुराश्चैत्रारम्भे विदधति मधुराः। यूनामस्मिन् घटितयुवतयो दूतीकृत्यं परभृतरुतयः ॥१४,३० पूर्वार्धके चरणोंके अन्त में 'राः' और उत्तरार्धके दोनों चरणोंके अन्त में 'तयः' की आवृत्ति होनेसे यहाँ अन्त्यानुप्रास है। अथवा सहसैव समुद्भिद्य सुस्रुवे करिणां कटैः। भेजे कोऽपि महोत्साहो रोमाञ्चकवचैर्भटैः ॥१५,२९ पूर्वार्ध और उत्तरार्धके अन्त में 'ट:' की आवृत्ति होनेसे यहाँ अन्त्यानुप्रास है। पादयमक-भूरिभैरवधीराया रुष्टः प्रतिगजश्रुतेः ।। भूरिभैरवधीरायाः समदानैः स्वपाणिना ॥१५,१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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