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________________ प्रस्तावना [१०] चं० च० में रस योजना ' स कविर्यस्य वचो न नीरसम्' (चं० च० १२, १०८ ) -- इस उक्तिसे स्पष्ट है कि वीरनन्दीकी दृष्टिमें श्रेष्ठ कवि वह है, जिसका काव्य सरस हो । यही कारण है कि चं० च० में आदिले अन्त तक रसकी अविच्छिन्न धारा प्रवाहित है । यहाँ इसके मुख्य रसोंका उल्लेख प्रस्तुत है । शान्तरस - चं० च० का अङ्गी (प्रधान) रस सान्त है, जो इसके प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पञ्चम, एकादश, पंचदश (१३३ १६१ ) सप्तदश और अन्तिम अष्टादश सर्गमें प्रवाहित है। इन सर्गों में विरक्तिके कारणोंके मिलने पर संसार, शरीर, यौवन, जीवन और विषयोंकी अनित्यता मुनिदर्शन, दीक्षा, तपस्या, दिव्य देशना और मुक्ति की प्राप्ति वर्णित है । उदाहरण के लिए १, ७८ ४, २५; ११, १७, १५, १३५; १७, ६९ इत्यादि पद्य द्रष्टव्य हैं । २५ शृङ्गाररस - ० च० के सप्तम सर्गके बयासीवें पद्यसे लेकर दशम सर्गके अन्त तक श्रृङ्गार रस प्रवाहित है । सप्तम सर्ग के उक्त अंश में दिग्विजय के उपरान्त सम्राट् अजितसेन अपनी राजधानी में प्रवेश करते हैं । इन्हें देखने वाली नायिकाओंकी विविध चेष्टाएँ शृङ्गार रस ( पूर्वराग ) को अभिव्यक्त करती हैं । अष्टम सर्ग में वसन्त ऋतु, नवममें उपवन यात्रा, उपवन विहार एवं जलक्रीड़ा तथा दशम में सायंकाल, अन्धकार, चन्द्रोदय और रात्रिक्रीड़ा ( सुरत ) वर्णित हैं, जिनमें संभोग और विप्रलम्भ दोनोंका आस्वाद मिलता है । अन्य सर्गों भी न्यूनाधिक मात्रामें शृङ्गार रस विद्यमान है । ७, ८३, ८, ३९, ९, २४; १०, इत्यादि पद्य शृङ्गार रस के उदाहरण के रूपमें द्रष्टव्य हैं। ६० पति-पत्नी के हृदय में विद्यमान रति ( स्थायीभाव ) यदि एक-दूसरे के प्रति हो तो यह विभाव, अनुभाव और संचारी भावके संयोगसे शृङ्गार रसके रूपमें परिणत हो जाती है। यदि यही रति देव, मुनि या राजा आदिके विषयमें हो तो वह 'भाव' रूपमें परिणत होती है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं। देव विषया रति- १७, ३२ मुनिविषया रति ११, ४२; राजविषया रति-१२-६८ । वीररस - ग्यारहवें सर्ग ( ८५ - ९२ ) में तथा पन्द्रहवें ( १-१३१ ) में वीररस है । ग्यारहवें सर्गके अन्तमें राजा पद्मनाभ के द्वारा अदम्य उत्साह पूर्वक राजधानी में प्रलय मचाने वाले एक जंगली हाथीको वशमें लानेका वर्णन है और पन्द्रहवें सर्ग के इसी हाथी को अपना बतलाकर अपमानजनक व्यवहार करनेवाले राजा पृथिवीपाल के साथ पद्मनाभ के युद्धका वर्णन है, जो वोररससे आप्लावित हैं। १५ ३६; १५, ४८; १५, ५८ १५, ९९ इत्यादि पथ इसके उदाहरण के लिए अवलोकनीय हैं। - रौद्ररस पं० ० के छठे सर्गमें कुरुपात चण्डरुचि नामक असुर पिछले बैर के कारण राजकुमार अजित सेनका अपहरण करके उसको हत्याका दुष्प्रयास करता है। राजा महेन्द्र राजा जयवर्माको अनुपम सुन्दरी कन्या शशिप्रभाको बलात् छीनने के लिए युद्ध छेड़ देता है, और इसके पराजित होने पर धरणीध्वज भी शशिप्रभा को पाने के उद्देश्यसे युद्ध के मैदान में उतर आता है, पर जयवर्मा महेन्द्रकी भाँति इसके भी छक्के छुड़ा देता है। इन तीनों प्रसंगोंमें रौद्र रसका परिपोष हुआ बीभत्सरस -- चं० च० के ( १५, ५३ ) आदि कतिपय पद्योंमें बीभत्स रस अभिव्यक्त है, जिनमें मांस और रक्तासवके सेवन से उन्मत्त डाकनियोंका धड़ोंके साथ नाचना वर्णित है । १ करुणरस - चं० च० (५, ५५-७१ ) में करुण रस प्रवाहित है, जहाँ अपहृत पुत्रके शोकमें उसके पिता अजिजका विलाप वर्णित है। इसके उदाहरण के लिए ५ ५८ ५, ६२ आदि पय द्रष्टव्य हैं। Jain Education International १. मृत्युके उपरान्त करुण रसकी अभिव्यक्ति होती है । यहाँ अजितसेनकी मृत्यु नहीं हुई, अनिष्टको प्राप्ति हुई इसी दृष्टिसे करुणरस अभिव्यक्त हुआ है। 'इष्टनाशादनिष्टाप्ते करुणाख्यो रसो भवेत् (सा० ६० २ २२२ ) । काव्यानु० (२, पृ० ९१ ) और अलङ्कारचि० (५, १०१ ) से भी इसका समर्थन होता है, अतः चं० च० के उक्त सन्दर्भ में करुणरस मान्य है । 1 प्रस्ता०-४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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