________________
चन्द्रप्रमचरितम्
११. युद्ध वर्णन-महाकाव्योंमें युद्ध जैसे भयावह विषयका भी सरस वर्णन किया जाता है। रघुवंशके तीन ( ३, ७, १२ ) सर्गों के कुछ पद्योंमें युद्धका संक्षिप्त किन्तु सारगर्भ वर्णन है। किरातके पूरे पन्द्रहवें तथा माघके उन्नीस-बीसवें सर्गों में युद्धका वर्णन किया गया है। चं० च० के पूरे पन्द्रहवें सर्गमें युद्धका विस्तृत वर्णन है। रघुवंशकी भांति अन्य सर्गो में भी इसका जो संक्षिप्त वर्णन है, वह इससे भिन्न है। किरात और माघ की भाँति चं० च० का युद्ध वर्णन अनुष्टुप् छन्दमें किया गया है। नैषधमें युद्धका वर्णन दृष्टिगोचर नहीं हुआ। चं० च० में वर्णित युद्ध में अर्धचन्द्र, असि, कुन्त, कवच, गदा, चक्र, चाप, परशु, प्रास, बाण, मुद्गर, यष्टि, वज्रमुष्टि, शङ्क और शक्ति आदि अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोगका उल्लेख है। कालिदासने युद्ध वर्णनके पद्योंमें अर्थचित्रको और भारवि तथा माघने शब्दचित्रको मुख्यता दी है, पर वीरनन्दीने इस सन्दर्भ में मध्यमार्गका आश्रय लिया है इसीलिए इन्होंने एक पद्यमें एकाक्षर चित्र, एक पद्यमें द्वयक्षरचित्र तथा कुछ पद्योंमें यमकका प्रयोग किया और शेषमें अर्थचित्रका । शब्दचित्रके प्रदर्शन में भारवि
और माघ दोनों पटु हैं, पर इसमें माघ अधिक सफल हुए हैं। रघुवंशकी भाँति चं० च० के युद्धवर्णनमें वीर रसका जो आस्वाद प्राप्त होता है, किरात और माघमें नहीं। चं० च० का वर्ण्यविषय किरात और माघ जैसा है. पर भाषा और शैलो रघुवंश जैसी। यही कारण है कि यद्ध जैसे विषयमें भी वीरनन्दीको कालिदास की ही भाँति सफलता प्राप्त हुई है। चं० च० के प्रस्तुत प्रसंगमें एक विशेष बात यह भी है कि रणाङ्गणमें विजय पानेवाले राजा पद्मनाभको जब उसके एक सैनिकने प्रतिद्वन्द्वी राजा पृथिवीपालका कटा हुआ सिर दिखलाया तो उसे उसी समय वैराग्य हो गया। इस अवसर पर उसके मुखसे जो उद्गार निकले वे स्तुत्य हैं । अन्तमें वह पथिवीपालका राज्य उसके पुत्रको और अपना राज्य अपने पत्रको देकर श्रीधर मनिके निकट जिन दीक्षा ले लेता है। माधके अन्तिम सर्गमें भ० कृष्णके द्वारा युद्ध में शिशुपालके सिर काटने का उल्लेख है, पर उसके बाद चं० च० जैसे विचारोंका वर्णन नहीं है। इस ढंगका वर्णन रघुवंश, किरात या अन्य किसी महाकाव्य में अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ। किसी भी अच्छे या बुरे काम के बाद उसके करनेवाले व्यक्तिके हृदयमें कुछ-न-कुछ विचार अवश्य उत्पन्न होते हैं। सत्कविके द्वारा उनकी चर्चा अवश्य की जानी चाहिए । निष्कर्ष यह कि चं० च० का युद्ध वर्णन भी अपने ढंगका एक है।
१२. चतुर्थ पुरुषार्थका वर्णन-भामहने ( काव्या० १,२ ) में काव्य-प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है-सत्काव्यको रचना धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, कला प्रवीणता, आनन्द एवं कोति प्रदान करती है । विश्वनाथने (सा० द० १,२) में लिखा है कि अल्पमति व्यक्तियोंको भी विशेष परिश्रम किये बिना धर्म आदि पुरुषार्थोंके फल की प्राप्ति काव्यसे ही हो सकती है, अत:"। इस प्रयोजनकी दृष्टिसे वीरनन्दी अपने काव्य निर्माणमें पूर्ण सफल हुए हैं। काव्योचित अन्यान्य विषयोंके साथ चं० च० में चारों पुरुषार्थों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। चं० च० के अन्तिम सर्गमें केवल चतुर्थ पुरुषार्थका ही वर्णन है । इसमें सात तत्त्व, मोक्षका स्वरूप और उसके प्राप्त करनेके उपाय-इन विषयोंका विस्तृत वर्णन है। इसका सीधा सम्बन्ध चन्द्रप्रभको दिव्य देशनासे है। नायककी मुक्ति प्राप्ति पर प्रस्तुत महाकाव्यकी समाप्ति हुई है। सत्काव्यों अध्ययनसे चतुर्वर्ग रूप फलकी प्राप्ति अलङ्कार ग्रन्थों में बतलायी गयी है तो धर्मसे लेकर मोक्ष पर्यन्त चारों वर्गों या पुरुषार्थों का वर्णन भी सत्काव्योंमें होना चाहिए, जैसा कि चं० च० में है। रघुवंश आदि चारों जैनेतर काव्योंमें यह दृष्टिगोचर नहीं होता। किसी एकाध पद्यसे इसका सम्बन्ध जोड़ दिया जाये तो वह अलग बात होगी। चं० च० का अङ्गो रस शान्त है, जिसका फल मोक्ष है, अत: इसमें मोक्ष पुरुषार्थका वर्णन आवश्यक था, जिसे वीरनन्दीने पूरा किया।
इस तुलनात्मक संक्षिप्त अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि वीरनन्दी अपने महाकाव्यके निर्माणमें कालिदास. भारवि, माघ और श्रीहर्ष आदि महाकवियोंकी अपेक्षा कहीं अधिक सफल हुए हैं। वीरनन्दी यदि जैन-नहोते तो इनका महाकाव्य भी रघुवंश आदि की भाँति ख्याति प्राप्त करता और प्रचारमें भी आ जाता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org