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प्रस्तावना
लुञ्चन करते हैं । देवेन्द्र और देव मिलकर तप कल्याणकका उत्सव मनाते हैं, और उन केशोंको मणिमय पात्र में रखकर क्षीरसागर में प्रवाहित करते हैं ।
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पारणा -- नलिनपुर में राजा सोमदत्त के यहाँ वे पारणा करते हैं । इसी अवसर पर वहाँ पाँच आश्चर्य प्रकट होते हैं ।
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कैवल्य प्राप्ति - घोर तप करके वे शुक्लध्यानका अवलम्बन लेकर [ फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन ] कैवल्य - पूर्णज्ञानको प्राप्ति करते हैं ।
समवसरण - कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् इन्द्रका आदेश पाकर कुबेर साढ़े आठ योजनके विस्तार में वर्तुलाकार समवसरणका निर्माण करता है । इसके मध्य गन्ध कुटी में एक सिंहासन पर भ० चन्द्रप्रभ विराज मान हुए और चारों ओर वर्तुलाकार बारह प्रकोष्ठों में क्रमशः गणधर आदि ।
दिव्य देशना - इसके अनन्तर गणधर ( मुख्य शिष्य) के प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् चन्द्रप्रभ जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन सात तत्त्वोंके स्वरूपका विस्तृत निरूपण ऐसी भाषा में किया, जिसे सभी श्रोता आसानीसे समझते रहे ।
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गणधरादिकों की संख्या - दस सहज, दस केवल ज्ञान कृत और चौदह देवरचित अतिशयों तथा आठ प्रातिहायोंसे विभूषित भ० चन्द्रप्रभके समवसरण में तेरानवे गणधर दो हजार कुशाग्रबुद्धि पूर्वधारी, दो लाख चारसौ' उपाध्याय, आठ हजार अवधिज्ञानी, दस हजार केवली, चौदह हजार विक्रिया ऋद्धिधारी साधु, आठ हजार मन:पर्ययज्ञानी साधु, सात हजार छः सौ वादी, एक लाख अस्सी हजार' आर्यिकाएँ, तीन लाख सम्यग्दृष्टि श्रावक और पाँच लाख ' व्रतवती श्राविकाएँ रहीं ।
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यत्र-तत्र आर्यक्षेत्र में धर्मामृतकी वर्षा करते हुए भ० चन्द्रप्रभ सम्मेदाचल ( शिखर जी ) के शिखर पर पहुँचते हैं । भाद्रपद शुक्ला सप्तमी के दिन अवशिष्ट चार अघातिया कर्मोंको नष्ट करके दस लाख पूर्व प्रमाण आयुके समाप्त होते ही वे मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
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पूर्वधारियोंकी संख्या चार हजार दी है ।
१. हरिवंश ० ( ७२४,२४० ) में और त्रिषष्टिशलापु० (२९८, ६६ ) में पुरका नाम 'पद्म खण्ड ' दिया है, एवं पुराणसा० (८६, ६२ ) में 'नलिनखण्ड' । २. हरिवंश० ( ७२४, २४६ ) में और पुराणसा० ( ८६, ६२ ) में राजाका नाम 'सोमदेव' दिया है । ३. चन्द्रप्रभचरितम् में मिति नहीं दी, अत: उ० पु० (५४, २२४) के आधार पर दी है । चन्द्रप्रभचरितम् में चन्द्रप्रभ भगवान् के जन्म और मोक्ष कल्याणकों की मितियाँ दी शेष तीन कल्याणकों की नहीं । ४. त्रिषष्टिशलाका पु० ( २९८,७५ ) में समवसरणका विस्तार एक योजन लिखा है । ५. तिलोयप० ( ४,११२० ) में ६. तिलोयप० (४,११२० ) में उपाध्यायोंकी संख्या दो लाख दस हजार चारसी दी है । ७. तिलोयप० ( ४, ११२१ ) में अवधिज्ञानियोंकी संख्या दो हजार लिखी मिलती है । ८. तिलोयप० ( ४,११२१ ) में केवलियोंकी संख्या अठारह हजार दी है । ९. तिलोयप० (४,११२१ ) में विक्रिया ऋद्धिधारियोंकी संख्या छः सौ दी है; और हरिवंश ० ( ७३६, ३८६) में दस हजार चारसौ । १०. तिलोयप० ( ४.११२१ ) में वादियों की संख्या सात हजार दी है । ११. तिलोयप० ( ४, ११६९ ) में आर्यिकाओंकी संख्या तीन लाख अस्सी हजार दी है और पुराणसा० (८८, ७५) में भी यही संख्या दृष्टिगोचर होती है । १२. पुराणसा० ( ८८, ७७) में श्राविकाओं की संख्या चार लाख एकानवे हजार दी है । त्रिषष्टिशलाकापु० में दी गयी संख्याएँ इनसे प्रायः भिन्न हैं । १३. उ० पु० ( ५४,२७१ ) में चन्द्रप्रभके मोक्ष कल्याणककी मिति फाल्गुन शुक्ला सप्तमी दी गयी है, पुराणसा० (९०, ७९) में मिती नहीं दी गयी केवल ज्येष्ठा नक्षत्रका उल्लेख किया है ।
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