________________
१२
चन्द्रप्रभचरितम्
है। इसके उपरान्त सौधर्मेन्द्र अन्य इन्द्रोंके साथ चन्द्रप्रभकी स्तुति करता है और फिर उन्हें माताके पास पहुँचाकर महासेनसे अनुमति लेकर वापिस चला जाता है ।
बाल्यकाल-शिशु अमृतलिप्त अपनी अंगुलियोंको चूसकर ही तृप्त रहता है, उसे माँके दूधकी विशेष लिप्सा नहीं होती। चन्द्रकलाओंकी भाँति उसका विकास होने लगता है। धीरे-धीरे वह देव कुमारोंके साथ गेंद आदि लेकर क्रीड़ा करने योग्य हो जाता है। इसके पश्चात् वह तैरना, हाथो-घोड़े पर सवारी करना आदि विविध कलाओं में प्रवीण हो जाता है ।
विवाह संस्कार-वयस्क होते ही महासेन उनका विवाह संस्कार करते है, जिसमें सभी राजेमहाराजे सम्मिलित होते हैं।
राज्य संचालन-पिताके आग्रह पर चन्द्रप्रभ राज्य संचालन स्वीकार करते हैं। इनके राज्यकाल में प्रजा सुखी रही, किसीका अकाल मरण नहीं हुआ, प्राकृतिक प्रकोप नहीं हुआ तथा स्वचक्र या परचक्र से कभी कोई बाधा नहीं हई। दिन-रातके समयको आठ भागोंमें विभक्त करके वे दिनचर्या के अनुसार चलकर समस्त प्रजाको नयमार्ग पर चलनेकी शिक्षा देते रहे। विरोधी राजे-महाराजे भी उपहार ले-लेकर उनके पास आते और उन्हें नम्रता पूर्वक प्रणाम करते रहे। इन्द्र के आदेश पर अनेक देवाङ्गनाएँ प्रतिदिन उनके निकट गीत-नृत्य करती रहीं। अपनी कमला आदि अनेक पत्नियोंके साथ वे चिरकाल तक आनन्दपूर्वक रहे।
वैराग्य-किसी दिन एक वृद्ध लाठी टेकता हुआ उनकी सभामें जाकर दर्दनाक शब्दोंमें कहता है-'भगवन् ! एक निमित्तज्ञानीने मुझे मृत्यु की सूचना दी है। मेरी रक्षा कीजिए, आप मृत्युञ्जय है, अतः इस कार्य में सक्षम हैं।' इसके बाद वह अदृश्य हो जाता है। चन्द्रप्रभ समझ जाते हैं कि यह वृद्धके वेष में देव आया था, जिसका नाम था धर्मरुचि । इसी निमित्तसे वे भोगोंसे विरक्त हो जाते हैं और दीक्षा लेनेका निश्चय करते हैं । इतने में ही वहाँ लौकान्तिक देव आ जाते हैं, और 'साधु' 'साधु' कहकर उनके वैराग्य की सराहना करते हैं। इसके उपरान्त ही वे अपने पुत्र वरचन्द्र को राज्य सौंप देते हैं।
तप-तत्पश्चात इन्द्र और देव चन्द्रप्रभको 'विमला' नामकी शिबिकामें बैठाकर ले जाते हैं, जहाँ वे [ पौष कृष्णा एकादशीके दिन 1 दो उपवासोंका नियम लेकर सिद्धोंको नमन करते हुए एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा लेकर तप करते हैं। इसी अवसर पर वे पांच दृढ़ मुष्टियोंसे केश
लघु वनमें
१. उ० पु० (५४,१७४ ) में स्तुतिका उल्लेख नहीं है, 'आनन्द' नाटकका उल्लेख है। त्रिषष्टिशलाकापु० में नाटकका नहीं, स्तुतिका उल्लेख है। २. उ० पु० (५४, २१४ ) में और पुराणसा० (८६, ५७,) में क्रमशः, निष्क्रमणके अवसर पर अपने पुत्र वरचन्द्र, व रवितेजको चन्द्रप्रभके उत्तराधिकार सौंपनेका उल्लेख है पर दोनों में उनके विवाह के स्पष्ट उल्लेख करनेवाले पद्य नहीं है। त्रिषष्टि शलाका पु० (२९८, ५५) में चन्द्रप्रभकी अनेक पत्नियोंका उल्लेख है, जो चन्द्रप्रभचरितम् (१७,६०) में भी पाया जाता है। ३. चन्द्रप्रभ के वैराग्यका कारण तिलोयप० (४, ६१० ) में अध्रुव वस्तुका और उ० पु० (५४, २०३) तथा त्रिषष्टिस्मृति (२८,९) में दर्पण में मुखकी विकृतिका अवलोकन लिखा है । त्रिषष्टिशलाकापु० और पुराणसा० में वैराग्यके कारणका उल्लेख नहीं है । ४. हरिवंश० (७२२,२२२) में शिबिकाका नाम 'मनोहरा', त्रिषष्टिशलाकापु० (२९८,६१) में 'मनोरमा. पुराण सा० (८६,५८) में 'सुविशाला' लिखा है । ५. तिलोयप० (४,६५१) में वनका नाम 'सर्वार्थ' उ० पु० (५४,२१६) में 'सर्वर्तुक', त्रिषष्टिशलाका पु० (२९८,६२) में एवं पुराणसा० (८६,५८) 'सहस्राम्र' लिखा है । ६. चन्द्रप्रभचरितम्में मिति नहीं दी, अतः हरिवंश० (७२३,२३३) के आधार पर यह मिति दी है। उ० पु० (५४,२१६) में भी यही मिति है, पर कृष्ण पक्षका उल्लेख नहीं है। पुराण सा० (८६,६०) में केवल अनुराधा नक्षत्रका ही उल्लेख है और त्रिषष्टिशलापु० ( २९८,६४ ) में पौष कृष्ण त्रयोदशी मिति दी गयी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.