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प्रस्तावना
माता-पिता-इनकी माताका नाम लक्ष्मणा और पिताका नाम महासेन है । यह पट्टरानी थी। इक्ष्वाकुवंशी महासेन अनेकानेक गुणोंकी दृष्टिसे अनुपम रहे। दिग्विजयके समय इन्होंने अङ्ग, आन्ध्र, औढ़, कर्णाटक, कलिङ्ग, कश्मीर, कीर, चेदी, टक्क, द्रविल, पाञ्चाल, पारसीक, मलय, लाट और सिन्ध आदि अनेक देशोंके नरेशोंको अपने अधीन किया था।
रत्नवृष्टि-दिग्विजयके पश्चात् चन्द्रपुरीमें राजा महासेनके राजमहलमें चन्द्रप्रभके गर्भावतरणके छ: मास पहलेसे जन्म दिनतक प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ रत्नोंको वृष्टि होती रही।
गर्भशोधन आदि-रत्नवृष्टिको देखकर महासेनको आश्चर्य होता है, पर कुछ ही समयके पश्चात् इन्द्र की आज्ञासे आठ दिक्कूमारियां उनके यहाँ रानी लक्ष्मणाकी सेवाके लिए उपस्थित होती हैं। उनके साथ हुए वार्तालापसे उनका आश्चर्य दूर हो जाता है। महासेनसे अनुमति लेकर वे उनके अन्तःपुरमें प्रवेश करती हैं और लक्ष्मणाके गर्भशोधन आदि कार्यों में संलग्न हो जाती हैं।
शुभ स्वप्न-महारानी सुखपूर्वक सोयी हुई थीं, इतने में उन्हें रात्रिके अन्तिम प्रहरमें सोलह शुभ स्वप्न हुए । प्रभात होते ही वे अपने पतिके पास पहुँचती हैं।
स्वप्नफल-पत्नी के मुखसे क्रमशः सभी स्वप्नोंको सुनकर महासेनने उनका शुभफल बतलाया, जिसे सुनकर उसे अपार हर्ष हुआ।
गर्भावतरण-आयुके समाप्त होते ही पूर्वचर्चित अहमिन्द्र वैजयन्त नामक अनुत्तर विमानसे चयकर प्रशस्त [ चैत्र कृष्णा पञ्चमोके ] दिन महारानी लक्ष्मणाके गर्भ में प्रवेश करता है ।
गर्भकल्याणक महोत्सव-इसके पश्चात् इन्द्र महासेनके राजमहलमें पहुँचकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। माताके चरणोंकी अर्चना करके वे वहाँसे वापिस चले जाते हैं, पर श्री, ह्री और धृति देवियां वहीं रहकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करती हैं।
जन्म-पौष कृष्णा एकादशी के दिन लक्ष्मणा सुन्दर पुत्र-चन्द्रप्रभको जन्म देती हैं। इस शुभ वेलामें दिशाएँ स्वच्छ हो जाती हैं: आकाश निर्शल हो जाता है: सुगन्धित वायका संचार होता है: पुष्पोंकी वृष्टि होती है; कल्पवासी देवोंके यहाँ मणिघण्टिकाएँ, ज्योतिष्कोंके यहाँ सिंहनाद, भवनवासियोंके यहाँ शङ्ग और व्यन्तरोंके यहाँ दुन्दुभि बाजे स्वयमेव बजने लगते हैं-इन हेतुओं तथा आसनके कम्पनसे इन्द्र चन्द्रप्रभके जन्मको जानकर देवोंके साथ चन्द्रपुरीकी ओर प्रस्थान करते हैं ।
अभिषेक-इन्द्राणी माताके निकट मायामयी शिशुको सुलाकर वास्तविक शिशुको राजमहलसे बाहर ले आती है। सौधर्मेन्द्र शिशुको दोनों हाथोंमें लेकर ऐरावतपर सवार होता है और सभी देवों के साथ सुमेरु पर्वतकी ओर प्रस्थान करता है। वहां पाण्डुक शिलापर शिशुको बैठाकर देवों द्वारा लाये गये क्षीरसागरके जलसे अभिषेक करता है, और विविध अलंकारोंसे अलङ्कृत करके उनका चन्द्रप्रभ नाम रख देता
१. तिलोयप० (४,५३३ ) में माताका नाम 'लक्ष्मीमती' लिखा है। २. उ० पु०, पुराणसा० और त्रिषष्टिशलाकपु. में केवल स्वप्नोंकी संख्याका ही उल्लेख है। गुणभद्र और दामनन्दीने स्वप्नोंकी संख्या १६ और हेमचन्द्र ने १४ दी है। हेमचन्द्रकी दृष्टिसे १४ स्वप्न ये हैं-गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मीअभिषेक, माला, चन्द्र, सूर्य, कुम्भ, ध्वज, सागर, सरोवर, विमान, रत्नराशि और अग्नि । सिंहासन और नाग-विमान ये दो स्वप्न दिगम्बर साहित्यमें अधिक हैं। ३. यह मिति उ० पु० (५४,१६६ ) के आधारपर दो है; क्योंकि तिलोयप०, हरिवंश और पुराणसा० की भांति प्रस्तुत चं० च० में इसका उल्लेख नहीं है । उ० पु० में जो मिति दी गयी है वही त्रिषष्टिशलाका पु० ( २९६,२९ ) में भी दृष्टिगोचर होती है। ४. यही मिति उ० पु०, हरिवंश तथा तिलोय० में अङ्कित हैं, त्रिषष्टिशलाकापु० ( २९७,३२) में पौष कृष्णा द्वादशी लिखी है, पर पुराणसा० (८४,४४ ) में केवल अनुराधायोगका ही उल्लेख मिलता है।
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