SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ चन्द्रप्रभचरितम् [४] चं० च० की कथावस्तुका आधार चन्द्रप्रभचरितम्'की कथावस्तुके आधारके विषयमें इसके रचयिताने स्वयं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। प्रस्तुत कृतिके प्रारम्भ (१,६ )में जहाँ आचार्य समन्तभद्रका स्मरण किया है, वहाँ किसी एक भी पुराणकारका नहीं । हाँ, इसके प्रथम सर्ग( १, ९-१० )में गुरुपरम्परासे प्राप्त दुष्प्रवेश पुराणसागरमें स्वयं प्रवेशार्थ उद्यत होनेको चर्चा वीरनन्दीने अवश्य की है। वह इस बातको ध्वनित करती है कि प्रस्तुत कृतिकी सामग्रीके संकलनके लिए वोरनन्दीने अनेक विशालकाय पुराणोंका परिशोलन किया था। अब देखना यह है कि वे विशालकाय पुराण कौनसे हैं, जो विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके प्रथम चरणमें वीरनन्दीके सामने रहे। सम्प्रति जो पुराण उपलब्ध हैं, उनमें तीन विशालकाय हैं-पद्मपुराण, हरिवंशपुराण और महापुराण । यदि लेखकोंकी भिन्नताके आधारपर महापुराणको आदिपुराण और उत्तरपुराणके रूपमें विभक्त कर लें तो पुराणोंकी संख्या तीन से चार हो जाती है। चं० चके परिशीलनसे ज्ञात होता है कि वीरनन्दोके समक्ष इन चारोंके अतिरिक्त अन्य पुराण भी रहे, जो अभी तक उप वीरनन्दीका अन्वेष्य विषय चन्द्रप्रभका जीवनवृत्त था, जो उन्हें उ० पु०से पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध हुआ। यों यह पद्मपुराणमें भी स्वल्पतम मात्रामें विद्यमान है, पर हरिवंशकी तुलनामें सर्वथा नगण्य है। हरिवंशमें इसका जो थोड़ा-बहुत अंश सूत्ररूपमें उपलभ्य है, वह उत्तरपुराणकी तुलनामें अपर्याप्त है । उत्तरपुराणके बाईस ( ४४-६५ ) पृष्ठोंपर चन्द्रप्रभका साङ्गोपाङ्ग जीवनवत्त दो सौ छिहत्तर सुन्दर पद्यों अङ्कित है। हरिवंशपुराणमें चन्द्रप्रभके जन्मादि स्थानों, पारिवारिक व्यक्तियों, विभूतियों, अतिशयों, पञ्चकल्याणमितियों और गणधरादिकोंकी संख्या आदिका ही मुख्यतया उल्लेख है। लगभग इसी ढंगका अत्यन्त ही स्वल्प उल्लेख पद्मपुराणमें है। जिनरत्नकोष ( पृ० ११९ ) आदि ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि आचार्य गुणभद्रके अतिरिक्त अन्य कवियोंके भी भिन्न-भिन्न भाषाओंमें निबद्ध चन्द्रप्रभचरितके संदर्भ मिलते हैं। निष्कर्ष यह कि वीरनन्दीके 'पुराणसागरे' पदसे उन्हें जो विपुल पुराणवाङ्मय विवक्षित है, उनमें सम्प्रति उत्तरपुराण ही ऐसा है, जिसे उनको कृति चं० च० को कथावस्तुका आधार माना जा सकता है। उ० पु० और चंच. के प्रतिपाद्य विषयमें जहाँ-कहीं थोड़ा-बहुत वैषम्य है, वहाँ हरिवंशपुराण आधार है, और जहाँ उक्त दोनोंसे भी वैषम्य है, संभव है वहाँ कवि परमेश्वरका 'वागर्थसंग्रहः' नामक पुराण आधार रहा हो, जिसके अनेक पद्य वीरनन्दीके समकालीन चामुण्डरायने अपने पुराणमें उद्धृत किये हैं। __ आदिपुराणके आधारपर निर्मित पुरुदेवचम्पूमें यत्र-तत्र आदिपुराणके अनेक श्लोकोंको थोड़े-बहुत परिवर्तनके साथ अपनाया गया है। ऐसा चं० च० में नहीं किया गया। उ० पु० को कथावस्तुका आधार बनाकर वीरनन्दीने अपनी कृतिमें अथसे इति तक सर्वत्र अपनी मौलिक प्रतिभाका उपयोग किया है। चं० च० के केवल एक स्थल में उ० पु० के दो पदोंका थोड़ा-सा साम्य' है, जो अकस्मात् हुआ जान पड़ता है। चं० च० के 'गुरुसेतुवाहिते' (१,१०) में 'गुरु'का अर्थ टीकाकारने 'गणधर और पञ्जिकाकारने 'श्रीजिनसेनादि' किया है। यदि पञ्जिकाकारका अर्थ साधार हो तो उ० पु० को चं० च० के आधार माननेकी बात और पुष्ट हो जाती है। क्योंकि उ० पु० जिनसेनकी कृतिका ही अङ्ग है । अथवा 'श्रीजिनसेनादि' में दिये गये 'आदि'से गुणभद्रको भी लिया जा सकता है। जो कुछ भी हो, यह सुनिश्चित है कि वीरनन्दीने उ. प. से पर्याप्त लाभ उठाया है। इसके लिए उ. पु० और चं० च० का साम्य ही साधक है, जो इस प्रकार है १. ग्रामाः कुक्कुटसंपात्याः सारा बहुकृषीबलाः । पशुधान्यधनापूर्णा नित्यारम्भा निराकुलाः ॥ -उ० पु०, पृ० ४५, श्लो० १५ ग्रामैः कुक्कुट संपात्यैः सरोभिर्विकचाम्बुजैः । सीमभिः सस्यसंपन्नैर्यः समन्ताद्विराजते ॥ -चं० च०. सर्ग २, श्लो० ११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy