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चन्द्रप्रमचरितम्
प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओंमें निबद्ध प्राचीन एवं अर्वाचीन काव्योंके परिशीलनसे ज्ञात होता है कि उनके चरितान्त नाम रखनेकी परम्परा प्राचीन कालसे हो चली आ रही है । उपलब्ध काव्योंमें विमलसूरिका 'पउमचरियं' प्राकृत चरित काव्योंमें, अश्वघोषका 'बुद्धचरितम्' संस्कृत काव्योंमें तथा स्वयम्भू कविका 'पउमचरिउ' अपभ्रंश काव्योंमें सर्वाधिक प्राचीन हैं । इन तीनोंमें प्रारम्भके दो काव्य ई० की प्रथम शतीके तथा तीसरा ई० की सातवीं शतीका है। प्रस्तत महाकाव्यका नाम इसी परम्पराके अनकल
विषय-प्रस्तुत ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय चन्द्रप्रभका जीवनवृत्त है, जो इसके अठारह सों में समाप्त हुआ है। प्रारम्भके पन्द्रह सर्गों में चरितनायकके छह अतीत भवोंका और अन्तके तीन सर्गों में वर्तमान भवका वर्णन किया गया है। सोलहवें सर्ग में गर्भकल्याणक, सत्रहवें में जन्म, तप और ज्ञान तथा अठारहवेंमें मोक्ष कल्याणक वर्णित है । महाकाव्योचित प्रासङ्गिक वर्णन और अवान्तर कथाएँ भी यत्र-तत्र गुम्फित हैं । सभी सर्गोके अन्तिम पद्योंमें 'उदय' शब्दका सन्निवेश होने से यह 'उदयाङ्क' कहलाता है।
[३] चं० च० की कथावस्तुका संक्षिप्तसार
चं० च० में चरितनायकके राजा श्रीवर्मा, श्रीधरदेव, सम्राट् अजितसेन, अच्युतेन्द्र, राजा पद्मनाभ, अहमिन्द्र और चन्द्रप्रभ-इन सात भवोंका विस्तृत वर्णन है, जिसका संक्षिप्तसार इस प्रकार है
१. राजा श्रीवर्मा-पुष्करार्ध द्वीपवर्ती सुगन्धि' देशमें श्रीपुर नामक पुर था। वहाँ राजा श्रोषेण निवास करते थे। उनकी पत्नी श्रीकान्ता२ पत्र न होनेसे सदा चिन्तित रहा करती थी। किसी दिन गेंद खेलते बच्चोंको देखते ही उसके नेत्रोंसे अश्रधारा प्रवाहित होने लगी। उसकी सखीसे इस बातको सुनकर राजा श्रीषेण उसे समझाते हुए कहते हैं-देवि, चिन्ता न करो। मैं शीघ्र ही विशिष्ट ज्ञानी मुनियोंके दर्शन करूंगा, और उन्हींसे पुत्र न होने का कारण पूछूगा। कुछ ही दिनोंके पश्चात् वे अपने उद्यानमें अचानक आकाशसे उतरते हुए चारणऋद्धिके धारक मुनिराज अनन्त के दर्शन करते हैं। तत्पश्चात् प्रसङ्ग पाकर वे उनसे पूछते हैं-'भगवन् ! मुझे वैराग्य क्यों नहीं हो रहा है ?' । उन्होंने उत्तर दिया-'राजन् ! पुत्र प्राप्तिकी इच्छा रहने से आपको वैराग्य नहीं हो रहा है। अब शीघ्र ही पुत्र होगा। अभी तक पुत्र न होनेका कारण आपकी पत्नीका पिछले जन्मका अशुभ निदान है।' घर जाकर वह अपनी पत्नीको पुत्र होनेकी उक्त बातको सुनाता है । वह प्रसन्न हो जाती है। दोनों धार्मिक कार्यों में संलग्न रहने लगते हैं । इतनेमें आष्टाह्निक पर्व आ जाता है । दोनोंने आठ-आठ उपवास किये, आष्टाह्निक पूजा को और अभिषेक भी। कुछ ही दिनोंके बाद रानी गर्भधारण करती है । धीरे-धीरे गर्भके चिह्न प्रकट होने लगे । नौ मास बोतनेपर पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है। उसका नाम श्रीवर्मा रखा गया। वयस्क होनेपर राजा उसका विवाह करके युवराज बना देता है। उल्कापात देखकर राजाको वैराग्य हो जाता है। फलतः वह श्रीवर्माको अपना राज्य सौंपकर श्रीप्रभ मुनिसे जिनदोक्षा लेकर घोर तप करता है और फिर मुक्ति कन्याका वरण करता है। पिताके वियोगसे वह कुछ दिनों तक शोकमग्न रहता है । शोकके कम होनेपर वह दिग्विजयके लिए प्रस्थान करता है । उसमें वह पूर्ण सफल होकर घर लौटता है। शरत्कालीन मेघको शीघ्र ही विलीन होते देखकर उसे वैराग्य जाता है । फलतः वह अपने पुत्र श्रीकान्त को अपना उत्तराधिकार देकर श्रीप्रभ मुनिके निकट जाकर दीक्षा ग्रहण करता है और घोर तपश्चरण करने लगता है।
१. पुराणसार संग्रह (७६,२) में देशका नाम गन्धिल लिखा है । २. पुराणसा० (७६,३) में श्रीमती नाम दिया है । ३. उ० पु० (५४,४४) में राजाका चिन्तित होना लिखा है । ४. उ० पु० (५४, ५१) में गर्भधारण करनेसे पहले चार स्वप्न देखनेका उल्लेख है, और पुराणसा (७६,५) में पाँच स्वप्न देखनेका । ५. पुराणसा० में गर्भचिह्नोंकी चर्चा नहीं है । ६. उ० पु० ( ५४,७३ ) में मुनिका नाम श्रीपद्म और पुराणसा० ( ७८,१९ ) में श्रीधर लिखा है। जिस वनमें दीक्षा ली थी, उसका नाम उ० पु० में शिवंकर और पुराणसा० में प्रियंकर दिया है । ७. पुराणसा० (७८,१९ ) में श्रीकान्तके स्थानमें श्रीधर लिखा है ।
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