________________
प्रस्तावना
२. श्रीधरदेव - घोर तपश्चरणके प्रभाव से श्रीवर्मा पहले स्वर्ग में धोधरदेव होता है। वहीं उसे दो सागरोपम आयु प्राप्त होती है। उसका अभ्युदय अन्य देवोंसे कहीं अच्छा है। देवियोंकी दृष्टि उसे स्थायी उत्सव समझती है ।
३. सम्राट अजित सेन- धातकी खण्ड द्वीपके अलका नामक देशमें कोशला' नगरी है। वहाँ राजा अजितंजय और रानी अजितसेना निवास करते हैं । श्रीधर देव इन्होंका पुत्र - अजित सेन होता है, जो वयस्क होते ही युवराज बना दिया जाता है । अजितंजयके देखते-देखते उसके सभाभवन से अजितसेनको कुख्यात चण्डरुचि नामक असुर पिछले जन्मके वैरके कारण उठा ले जाता है। राजा व्याकुल होकर मूच्छित हो जाता है। इसी बीच तपोभूषण मुनि पधारते हैं और यह कहकर वापिस चले जाते हैं कि युवराज कुछ दिनोंके बाद सकुशल पर आ जायगा। उधर वह असुर उसे बहुत ऊँचाईसे एक तालाब में गिरा देता है। मगरमच्छोंसे जूझता हुआ वह किसी तरह किनारेपर पहुँच जाता है। वहाँ से वह ज्यों ही परुषा नामकी अटवी में प्रवेश करता है त्यों ही एक भयङ्कर आदमी से द्वन्द्व छिड़ जाता है । पराजित होनेपर वह अपने असली रूपको प्रकट कर कहता है - 'युवराज, मैं मनुष्य नहीं देव हूँ। मेरा नाम हिरण्य है। मैं आपका मित्र हूँ, पर आपके पौरुष के परीक्षण के लिए मैंने ऐसा व्यवहार किया है, क्षमा कीजिए। पिछले तीसरे भवमें आप सुगन्धि देशके नरेश थे। आपकी राजधानी में एक दिन शशीने सेंध लगाकर सूर्यके सारे धनको चुरा लिया था। पता लगनेपर आपने शशीको कड़ा दण्ड दिया, जिससे वह मर गया और फिर वह चण्डरुचि असुर हुआ। इसी बैरके कारण उसने आपका अपहरण किया बरामद धन उसके स्वामीको वापिस दिलवा दिया। युवराज, वही शशी मरनेके बाद हिरण्य नामकदेव हुआ, जो इस समय आपसे बात कर रहा है ।" तत्पश्चात् युवराज विपुलपुरकी ओर प्रस्थान करता है। वहाँके राजाका नाम जयवर्मा, रानीका जयश्री और उनको कन्याका शशिप्रभा था । महेन्द्र नामक एक राजा जयवर्मासे उसकी कन्याकी मंगिनी करता है, पर किसी निमित्तज्ञानीसे उसे अल्पायुष्क जानकर वह स्वीकृति न दे सका। इससे क्रुद्ध होकर महेन्द्र जयवर्माको युद्धके लिए ललकारता है। युवराज जयवर्मा का साथ देता है और युद्ध में महेन्द्रको मार डालता है। इससे प्रभावित होकर जयवर्मा युवराजके साथ अपनी कन्या शशिप्रभाका विवाह करना चाहता है । इतने में विजयार्ध भी दक्षिण श्रेणी के आदित्यपुरका राजा धरणीध्वज जयवर्माको सन्देश भेजता है कि वह अपनी कन्याका विवाह मेरे ( धरणीध्वज ) के साथ करे। इसके लिए जयवर्मा तैयार नहीं होता । फलतः भयङ्कर युद्ध छिड़ जाता है। पूर्वचर्चित हिरण्यदेव के सहयोग से युवराज अजितसेन धरणीध्वजको भी युद्धभूमिमें स्वर्गवासी बना देता है। इसके उपरान्त जयवर्मा शुभमुहूर्त में युवराज अजितसेन के साथ अपनी कन्याका विवाहकर देता है। फिर उसके साथ अपने नगरकी शोभा बढ़ाता है। वहाँ अजितंजय उसे अपना उत्तराधिकार सौंप देते हैं। चक्रवर्ती होनेसे वह चौदह रत्नों एवं नौ निधियोंका स्वामित्व प्राप्त करता है। तीर्थङ्कर स्वयंप्रभके निकट अजितंजय जिन दीक्षा ले लेता है और सम्राट् के हृदयमें सच्ची श्रद्धा ( सम्यग्दर्शन ) जाग उड़ती है। दिग्विजय में पूर्ण सफलता प्राप्त करके सम्राट् अजितसेन राज्यका संचालन करने लगता है। किसी दिन एक उन्मत्त हाथीने एक मनुष्यकी हत्या कर डाली, इस दुःखद घटना को देखकर सम्राट्को वैराग्य हो जाता है, फलतः वह अपने पुत्र जितशत्रुको उत्तराधिकार सौंपकर शिवंकर उद्यानमें गुणप्रभ मुनिके निकट जिनदीक्षा ग्रहण कर लेता है और घोर तपश्चरण करता है ।
Jain Education International
९
१. उ० पु० ( ५४,८७ ) में और पुराणसा ( ८०, २२ ) में नगरीका नाम अयोध्या लिखा है । २. पुराणसा० ( ८०.२३) में शनीका नाम श्रीदत्ता लिखा है। ३. उ० पु० (५४८९) में श्रीधर देवके गर्भ में आने से पहले रानी के आठ शुभस्वप्न देखनेका भी उल्लेख है। ४. इस घटनाका उल्लेख उ० पु० और पुराणसा में नहीं है। ५. इस घटना का उल्लेख उ० पु० तथा पुराणसा० में नहीं है ६. इस घटनाका उल्लेख उ० पु० और पुराणसा० में नहीं है। इन दोनोंमें सम्राट्के द्वारा अरिंदम मुनिको आहार दिये जानेका । उल्लेख है, जो चं० च० में नहीं है। ७. उ० पु० ( ५४-१२२ ) में उद्यानका नाम 'मनोहर' लिखा है।
प्रस्ता०-२
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org