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________________ - २,७८] द्वितीयः सर्गः सुखदुःखादिपर्याया जीवान्न च विभेदिनः । तस्यामिति'सम्बन्धकल्पनानुपपत्तितः ॥ ७६ ।। नित्यस्यानुपकारित्वात्समवायो न युज्यते । . उपकाराश्रया सर्वा संबन्धसमवस्थितिः ।। ७७ ।। उपकारोऽपि भिन्नत्वात्तस्येति कथमुच्यते ।। उपकारान्तरापेक्षा विध्यादनवस्थितिम् ॥ ७८ ॥ प्रकाशते प्रतिभासते । काशि दीप्तो लट् ।।७५।। सुखेत्यादि । सुखदुःखादिपर्यायाः सुखदुःखादिपरिणामाः । जोवात् चैतन्यपदार्थात् । विभेदिन: अत्यन्तं भिन्नरूपाः । न च न च भवन्ति । कस्मादिति चेत् तस्य जोवपदार्थस्य अयम् इति एष पर्याय इति संबन्धकल्पनानुपपत्तेः संबन्धस्य समवायादेः कल्पनायाः अनुपपतेरभावात् ॥७६॥ नित्यस्येत्यादि । समवायसंबन्धो वर्तते इत्यक्ते-नित्यस्य सर्वथा नित्यपदार्थस्य । अनुपकारित्वात उपकाररहितत्वात् । समवायः समवायाख्यसंबन्धः । न युज्यते न संबध्यते । युजञ् योगे कर्मणि लट् । सर्वा समस्ता । संबन्धसमवस्थिति: सम्बन्धस्य समवायादे: समवस्थितिः संप्राप्तिः । उपकाराश्रया उपकार एवाश्रय आधारो यस्याः सा तथोक्ता ।.७७।। उपकार इत्यादि । उपकारोऽपि प्रकृतोपकारोऽपि । भिन्नत्वात् उपकारिणः सकाशात् सर्वथा भिन्नत्वात् पृथक्त्वादित्यर्थः । तस्येति तस्य उपकारिणोऽयम्पकार इति । कथं केन प्रकारेण । उच्यते भाष्यते । ब्रूज व्यक्तायां वाचि कर्मणि लट । 'अस्ति ब्रुवोभवचौ' इति वचादेशः । 'श्व्या-' इत्यादिना य इग् रूपस्य वकारस्य इग्रुप उकारादेशः । उपकारान्तरापेक्षप्रकृतोपकारादन्य उपकार उपकारान्तरं तस्यापेक्षा वर्तते चेत् न । अतः उसे सर्वथा नित्य मानना ठीक नहीं ॥७५॥ सुख-दुःख आदि अवस्थाएं जीवसे भिन्न नहीं हैं । यदि इन अवस्थाओंको जीवसे भिन्न माना जाये तो 'ये अवस्थाएं-पर्यायें इस जीवकी हैं' इस प्रकारके सम्बन्धको कल्पनाएँ नहीं हो सकती ।।७६॥ यदि कहा जाये कि पर्यायोंके साथ जीवका समवाय सम्बन्ध है तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि वैशेषिक लोग समवायको सर्वथा नित्य मानते हैं। सर्वथा नित्य होनेसे वह किसीका उपकार नहीं कर सकता। फलतः समवाय सम्बन्धसे भी पर्यायोंके साथ जीवका सम्बन्ध नहीं हो सकता । उपकारके आधारपर ही सम्बन्धोंकी व्यवस्था की जाती है। जब समवाय उपकार नहीं कर सकता, तो वह द्रव्य और पर्यायों के बीच कैसे माना जा सकता है ? ॥७७|| अच्छा, थोड़ी देरको यह मान भी लें कि समवाय उपकार करता है, तो उपकार तो अभी-अभी उत्पन्न हुआ है, अतः वह अनित्य है और समवाय नित्य है। ऐसी स्थिति में उपकारको समवायसे भिन्न मानना होगा। भिन्न मान लेनेपर 'यह उपकार समवायका है' वह कैसे सिद्ध होगा ? यदि प्रस्तुत समवायका उसके उपकारके साथ सम्बन्ध सिद्ध करने के लिए दूसरे समवायको माना जाय, तो फिर यह प्रश्न होगा कि दूसरे समवायका उसके उपकारके साथ सम्बन्ध कैसे होगा ? इसके उत्तरमें भी यह कहा जाय कि तीसरा समवाय मान लिया जायगा तो फिर वही प्रश्न होगा। फलतः अनबस्था हो १. अ आ इ क ख ग घ म तस्वामी इति । २. आ श स त्वन्तभिन्न । ३. 'तस्पायमिति' टीकाकृदभिमतः पाठः, सर्वासु प्रतिषु तस्यामी इति' इत्येव समपलभ्यते। पञ्जिकायामपि 'तस्यामी इति' इति वर्तते'ते च सुखदुःखादि पर्यायी जीवात् सर्वथा विभेदिन इति चेत्, न, भेदे सति 'तस्यामी' इति संबन्धानुपपत्तेः ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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