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-२,७१]
द्वितीयः सर्गः न चोपादानधर्मोऽपिकाये कोऽप्यवलोक्यते । शरीरे तदवस्थेऽपि जीव विकृतिदर्शनात् ।। ७० ।। घटादिकारणेष्वतन्मृदादिषु न चेक्ष्यते । ततोऽनुमानबाधापि पक्षं व्याघ्रीव वीक्षते ॥ ७१ ॥
दोनाम् । संहतिः समूहः। सहकारिणो सहकारिकारणभूता । येन कथं कल्प्येत ? काकुः ।।६९॥ न चेत्यादि । काये देहे । कोऽपि उपादानधर्मः उपादानस्य मख्यकारणस्य धर्मोऽपि स्वरूपमपि । न चावलोक्यते न च दश्यते। शरीरे देहे । तदवस्येऽपि पूर्वाकारसहिते सत्यपि । जीवे जीवपदार्थे । विकृतिदर्शनात् विकृतैविकारस्य दर्श. नात् अवलोकनात् ॥७०॥ घटादीत्यादि । घटादिकारणेषु घटादीनां कारणेषु मृदादिषु मृदादिर्येषां तेषु मृत्पिण्डादिषु । एतत् चैतन्यम् । न चेष्यते नाङ्गोक्रियते । इष इच्छायाम् । कर्मणि लट् । ततो मृदादिषु चैतन्याभावादेव । अनुमान बाधापि अनुमानप्रमाणेन बाधापि । व्याघ्रोव शार्दूलोव । पक्षं जीवो नास्तीति पक्षम् ।
कार्यकी उत्पत्ति नहीं कर सकता है ॥६९।। यदि यह कहो कि जीवको उत्पत्तिमें उसका शरीर उपादान कारण है, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि आत्मामें उपादानरूप शरीरका स्वभाव नहीं देख पड़ता। उपादान कारणमें यदि कोई विकार उत्पन्न हो तो उसका प्रभाव कार्यपर अवश्य हो पड़ता है, किन्तु शरीरके ज्यों-के-त्यों बने रहनेपर भी जीवमें विकार देखा जाता है। यदि शरीर उपादान कारण होता तो उसके अविकृत रहनेपर जीवको भी अविकृत रहना चाहिए। उपादानका धर्म उपादेयपर अपना प्रभाव अवश्य ही डालता है। यदि शरीरको उपादान और आत्माको उपादेय मानते हैं, तो आत्मामें शरीरका कोई धर्म अवश्य देख पड़ना चाहिए, किन्तु नहीं देख पड़ता-शरीर आँखोंसे देख लिया जाता है, किन्तु आत्मा आँखोंसे कभी नहीं देखा जा सकता; शरीर में अनेक विकार देखे जाते हैं, किन्तु वे आत्मामें नहीं देखे जाते; शरीरके बलमें न्युनता देखनेपर भी आत्माके बलमें अधिकता देखी जाती है। अतः शरीर आत्माका उपादान कारण नहीं माना जा सकता है ।।७०॥ घट आदि पदार्थोके जो मिट्टी आदि उपादान कारण हैं, उनमें यह बात नहीं देखी जाती कि मिट्टो आदि उपादान कारणमें विकार होनेपर भी घट आदिमें विकार न हो। अतः अनुमान बाधा भी आपके पक्षपर व्याघ्रोकी तरह क्रूर दृष्टि डाल रही है। चवालीसवें श्लोकमें तत्त्वोपप्लववादीने कहा था कि जीव पदार्थकी कोई प्रमाणसिद्ध सत्ता नहीं है। उसके 'जीव नहीं है' इस पक्षमें चौवनसे इकसठवें श्लोक तक प्रत्यक्ष-स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे बाधा दिखलाई थी। उसके पश्चात् बासठवें श्लोकसे बहत्तरवें श्लोक तक अनुमान बाधा दिखलाई गयी। स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे गर्भसे लेकर मरण पर्यन्त जीवकी सत्ता सिद्ध होती है और 'जीव अनादि और अनन्त है; क्योंकि वह सत् पदार्थ है और उसकी उत्पत्ति किसी अन्य पदार्थ से नहीं हुई है। जैसे भूत चतुष्टय' इस अनुमानसे जीवकी अनादिता और अनन्तता सिद्ध होती है और इसलिए यही अनुमान पूर्व पक्षीके पक्ष में बाधा उपस्थित करता है ॥७१।।
१. अ मद्योपादानधर्मोऽपि । २. म बाधादि। ३. अ व्याघ्रावतीक्षते । ४. आ वापि । ५. शस शरीरी देही। ६. = घटादिकारणेषु मृदादिषु, एतद्भिन्नलक्षणत्वं नेदयते च, ततस्तस्मादनु मानबाघापि पक्षं वीक्षते । व्याघ्रीवत् । यथा प्रत्यक्षेण पक्षबाधा तथानुमानतोऽपीति रहस्यम् ।
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