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________________ - २,६६ ] द्वितीयः सर्गः प्रत्येकपक्षे जीवानां भृतसंख्या प्रसज्यते । सहपक्षे ऽप्यसंविद्धयस्तेभ्यः स्याच्चेतनः कथम् ॥ ६५ ॥ सजातीयं ह्युपादानं दृष्टुं घटपटादिषु । मृदादीनां हि हेतूनां घटाद्यनुगमेक्षणात् ॥ ६६ ॥ साधनत्वम् । न च भवेत् ॥६४॥ प्रत्येकेत्यादि । प्रत्येकपक्षे पृथक् पक्षे' । जीवानां जीवपदार्थानाम् । भूतसंख्या भूतानां पृथिव्यादीनां संख्या गणना । प्रसज्यते प्रशंस्यते (?) सहपक्षेऽपि योगपद्यपक्षेऽपि । असंविद्भयः । न विद्यते संवित् येषां तेभ्योऽचेतनेभ्यः । तेभ्यः भूतचतुष्टयेभ्यः । चेतनः जीवपदार्थः । कथं केनप्रकारेण । स्यात् भवेत् न स्यादित्यर्थः । अस भुवि लिङ् ॥ ६५ ॥ सजातीयमित्यादि । घटपटादिषु घटश्च पटश्च घटपटी तौ आदी येषां तेषु घटपटादिपदार्थेषु । सजातीयं समानाजातिर्यस्य [तत्] सजातीयम्, 'जातेश्छः सामान्यवति' इति छ - प्रत्ययः, समानजातियुक्तम् । उपादानं त्यक्तात्यवतरूपम् उपादानम् इति लक्षणम्, मुख्यकारण - मित्यर्थः । दृष्टं दृश्यते स्म दृष्टम् । हि स्फुटम् । हि यस्मात् । मृदादीनां मृत्पिण्डादीनाम्" । हेतूनां मुख्यकारणानाम् । घटाद्यमुगमेक्षणात् घटादिषु कलशादिषु अनुगमस्यान्वयस्य ईक्षणात् दर्शनात् । इदं हेतुरूपम् || ६६ ॥ 3 ४७ नहीं हो सकते । क्यों ? सुनिए - ॥ ६४ ॥ यदि चार भूतों में से किसी भी एकको जीवकी उत्पत्ति में हेतु मान लिया जाये तो जीवमें उसकी संख्याका प्रसंग आयेगा -- जिस भूतसे जीवकी उत्पत्ति होगी, उसके प्रत्येक कणमें जीवोत्पादनकी शक्ति होगी या उनके समुदाय में ? यदि प्रत्येक में, तो जितनी संख्या कणोंकी होगी, उतनी ही जीवोंकी संख्या होगी । किन्तु किसी भी एक शरीर में अनेक जीवोंकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं; क्योंकि सभी जीवोंकी अलग-अलग इच्छाएं उत्पन्न होंगी, फलतः उन इच्छाओंकी पूर्ति के लिए सभी जीवों में सदा महाभारत छिड़ा रहेगा । यदि इस संख्या के प्रसंगसे बचने के लिए किसी एक या चारों भूतोंके कण-समुदाय में जीवोत्पादन की शक्ति मान ली जाये, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि चाहे एक भूतके कण हों चाहे चारोंके, वे सबके सब अचेतन हैं, और अचेतनसे चेतनकी उत्पत्ति हो नहीं सकती । ऐसा एक भी उदाहरण नहीं जो अचेतनसे चेतनकी उत्पत्ति सिद्ध करने में सहायक हो ॥ ६५॥ प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में उपादान और निमित्त ये दो कारण होते हैं । उनमें उपादान कारण सदा सजातीय ही होता है, यह नियम है । घटकी उत्पत्ति में उपादान कारण मिट्टी है और कपड़े की उत्पत्ति में तन्तु । मिट्टी घड़ेकी सजातीय है और तन्तु कपड़े के । इन सजातीय उपादान जिसे हम सब देखते ही हैं । अतः कारणों का घड़े और कपड़े में सदा अन्वय बना रहता है, चारों भूत चूँकि जीवके सजातीय नहीं, विजातीय हैं, इसलिए उन्हें जीवकी उत्पत्ति में उपादान कारण नहीं मान सकते | उन चारोंका जीवमें अन्वय भी तो हम नहीं देखते ||६६॥ " १. प्रत्येक भुताज्जीवो जायते इति पक्षे । २ = भूतानां यावती संख्या तावती संख्या तदुत्पन्नानां जीवानामपि स्यादित्यर्थः । ३. श स आदिः । ४ = त्यक्तात्यक्तात्मरूपं यत्पूर्वापूर्वेण वर्त्तते । कालत्रयेऽपि तद् द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् । अष्टसहस्रो - २१० । ५. श स मृद्घटादीनाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
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