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प्रधान-सम्पादकीय
को जैन आगममें प्रथमानुयोग अर्थात् धार्मिक शिक्षणका प्रथम चरण कहा गया है। आदिमें इन महापुरुषोंके चरितोंको पर्णतः लिपिबद्ध किया गया प्रतीत नहीं होता। कथानकोंके नायकोंके नाम. उनके नाम, जन्म-नगरो, जन्मादि निर्वाण पर्यन्त विशेष अवसरोंकी तिथियाँ आदि ही लिख ली जाती थीं. या याद कर ली जाती थीं, तथा इनका विस्तारसे वर्णन गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा मौखिक रूपसे चलता था । लेखन-सामग्रीको कठिनाई व अपरिग्रही मुनियों द्वारा साहित्य-सामग्री को लेकर निरन्तर विहार करने में असुविधा आदि इसके कारण हो सकते हैं । इन मुख्य-मुख्य बातोंकी सूचियोंको नामावलि कहते थे। स्वयं जैन पौराणिक परम्परा अनुसार प्राचीन पुराणकारों व चरित-रचयिताओंने इस बातका उल्लेख किया है कि उन्हें अपनी रचनाओंकी आधारभूत सामग्री 'नामावलि निबद्ध' ही प्राप्त हुई थी। स्थानांग व समवायांग आदि जैन आगमोंमें ऐसी ही नामावलियाँ प्राप्त होती हैं। तिलोय-पण्णत्तिमें समस्त तीर्थंकरोंका विवरण ऐसी हो नामावलियोंमें पाया जाता है। यह शैली जैन साहित्य में निरन्तर प्रचलित रही और 'दस ठाणा' 'बीस ठाणा' आदि समय-समय पर संकलित की गयी सूचियाँ आजतक भी प्रचलित हैं। इन्हें कितने ही जैन मुनि कण्ठस्थ भी कर लेते हैं। इन नामावलियोंके आधारसे कथानायकोंके जीवन-चरित्रका उपदेश देने में यह तो एक टि अवश्यम्भावी है कि उसमें समस्त घटनाओंके वर्णनमें एकरूपता नहीं हो सकती।। दृष्टिसे ये ही त्रुटियां और दोष उन कथाओं और आख्यानोंके विकासमें सहायक सिद्ध हुए हैं। प्रत्येक गुरु उनके मौलिक ढाँचेको सुरक्षित रखकर उसका विस्तार अपनी प्रतिभानुसार करने के लिए स्वतन्त्र था। इसी स्वतन्त्रताके फलस्वरूप धीरे-धीरे न केवल कथाओंको उत्तरोत्तर अधिक विस्तृत, रोचक, रोमाञ्चकारी व नाना शैलियोंमें वर्णित किया गया, किन्तु उनमें अलंकार युगमें नाना काव्य गुणोंका तथा प्रसंगानुसार अवान्तर कथाओंका समावेश भी होने लगा । पुराणों व चरितोंको इस विकासशीलताके उदाहरण देनेकी यहाँ आवश्यकता नहीं है; जैन साहित्यिक इतिहास का अवलोकन करनेसे वह स्वयं स्पष्ट हो जाता है।
प्रस्तुत चन्द्रप्रभ चरितकी रचना ग्यारहवीं शतीमें हुई है। यह युग भारतीय साहित्यमें छन्द, अलंकार व रस-भावादि काव्यगुणोंके विकास में चरम सीमापर पहुँच चुका था। अतएव इस चरितको रचनामें युगकी इस विशेषताका पूरा प्रतिबिम्ब पाया जाता है। धार्मिक दृष्टि से यह युग बड़ा महत्त्वपूर्ण था। इसमें एक ओर दार्शनिक व सैद्धान्तिक चिन्तनका, और दूसरी ओर न्याय शैली तथा उसको खण्डन-मण्डन वृत्तियोंका बहुत उत्कर्ष हुआ। वैदिक परम्परामें पड् दर्शनोंका सुव्यवस्थित रूप सामने आ चुका था तथा शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मण्डन मिश्र आदि महान् दार्शनिक व तार्किक भी हो चुके थे। चार्वाक दर्शन भी परिपुष्ट हो चुका था। तत्त्वोपप्लवसिंह जैसी रचनाएं भी प्रसिद्ध हो चुकी थीं। जैन समाजमें समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानन्दि आदिके द्वारा जैन दर्शन और न्यायने उक्त सभी सैद्धान्तिक धाराओंसे लोहा लिया। इस सबका यथोचित प्रतिबिम्बन भी प्रस्तुत रचनामें पाया जाता है। कथाके नायक एक जैन तीर्थंकर थे, तथा मुनियोंकी रचनाओंका उद्देश्य सदैव धार्मिक प्रतिपादन और प्रचार रहा है। अतएव इस रचनामें पद-पदपर प्रसंगानुसार जैन तत्त्वोंका विवरण उपस्थित किया गया है। जैन मान्यताका यह एक सुदृढ़ आधार-स्तम्भ है कि आत्मा अनादि-निधन है. अमर और शाश्वत है. एवं व्यक्ति जब जैसा है वह बहुत अंशमें उसके पूर्व जन्म-जन्मान्तरोंमें किये गये पाप-पुण्यात्मक कर्मोंका परिणाम है। इसी बातको शृंखलावद्ध बताने हेतु प्रायः कथानकके अनेक, पूर्व जन्मोंका भी वर्णन किया जाता है। और वह वर्णन केवल इहलौकिक मात्र नहीं रहता, किन्तु इस लोक में किये गये अच्छे-बुरे कर्मोका परिणाम स्वर्गके सुख ज्ञानपीठ नरककी यातनाओं के सहन द्वारा दर्शाया जाता है। इसका जैन साहित्यमें कितना महत्त्व है यह इसताना प्रकट होगा कि प्रस्तुत चरितमें कथानक चन्द्रप्रभ तीर्थंकरके छह पूर्व भवोंका वर्णन किया गया है और वह संक्षेपमें नहीं, किन्तु इतने विस्तारसे कि ग्रन्यके प्रथम पन्द्रह सर्ग उसीमें घिर गये हैं, जबकि उनके तीर्थकर जन्मका चरित मात्र अगले तीन सोंमें वर्णित है। तीर्थकर चरितका ढांचा बहत कुछ बंधा
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