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प्रधान-सम्पादकीय
उपदेश चाहे छोटा हो या बड़ा, धार्मिक हो या नैतिक, सामाजिक व अन्य किसी विषयक, वह सामान्य जनों के हृदय में अथवा स्मृति पटलपर तबतक स्पष्टतः स्थिरतासे अंकित होकर नहीं बैठता जबतक कि अनुभव में आनेवाली जीवन-धारासे मेल मिलाकर न समझाया जाये । इसीलिए धर्मके प्रणेताओं तथा आचार्यांने आख्यानों तथा कथानकों का बहुत उपयोग किया है। किसी भी धार्मिक साहित्यको देखिए, उसका अधिकांश भाग मूलतः कथा-प्रधान हो पाया जावेगा । हिन्दू धर्मके वेद, उपनिषद् व पुराण, बौद्ध धर्मका त्रिपिटक, ईसाई धर्मका बाइबिल आदि सभी ग्रन्थ आख्यानोंसे परिपूर्ण हैं और उनके प्रचारक प्रायः उन्हीं कथानकोंके द्वारा श्रोताओंके हृदयपर अपने धार्मिक तत्त्वों व नियमोंका प्रभाव जमानेका प्रयत्न करते हैं ।
जैनधर्म में यह कथा - प्रवृत्ति विशेष रूपसे मौलिक, प्राचीन तथा परिपुष्ट रही है। इसका कारण यह है कि यहाँ मनुष्यको क्रियाशील बनाने तथा अपने कृत्योंके लिए पूर्ण उत्तरदायी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है । मानव-जीवन में जो उत्कर्ष और अपकर्ष आते हैं, जो सुख और दुःखका घटना चक्र चलता दिखाई देता है, उसमें विचारशील व्यक्तियोंको कार्य-कारण की श्रृंखला भी दृष्टिगोचर हो जाती है । परन्तु बहुजन समाज के लिए प्रकृतिकी नियामकता समझना - समझाना कठिन हो जाता है । फिर अनेक विषमताएँ तो ऐसी भी सामने आती हैं जिनके किसी नियमित कारणका पता लगाना प्रायः असम्भव हो जाता है । एकने राजा के महल तथा दूसरेने रंककी कुटिया में जन्म क्यों लिया ? कोई सुन्दर व घनी तथा कोई कुरूप और दरिद्रो क्यों ? कोई नियमसे चलनेवाला भी व्याधि- पीड़ित तथा दूसरा खान-पान में असंयमी रहता हुआ भी स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट क्यों ? ईमानदारी करनेवाला व्यापारी उन्नति नहीं कर पाता, जबकि धन्धे में सदैव धोखेबाजी करनेवाला नित्य उन्नति करता क्यों दिखाई देता है ? इत्यादि, इत्यादि ।
यों तो जो भी पौराणिक, ऐतिहासिक तथा लोक प्रचलित व जनश्रुतिकी परम्परासे चले आये सभी प्रकारके कथानकों व आख्यानोंको ग्रहणकर जैनाचार्योंने उन्हें सुरुचिपूर्ण तथा अपने धार्मिक सिद्धान्तोंके अनुकूल बनाकर उन्हें अपने साहित्य में स्थान देनेका प्रयत्न किया है । किन्तु उन्होंने कुछ ऐसे महापुरुषोंका भी चयन किया है जिनके जीवन की घटनाएँ मनुष्य के मनको पाप प्रवृत्तियों से विरक्त करके धर्म और पुण्यकी साधनाओं की ओर विशेष रूपसे आकर्षित करनेमें प्रभावशाली हो सकती हैं। इन महापुरुषोंकी संख्या परम्परासे तिरेसठ मानी गयी है और उन महापुरुपोंको शलाका पुरुषकी संज्ञा दी गयी है । शलाकाका अर्थ है सींक या सलाई । अर्थात् - जिनका स्मरण रखने के लिए उनके नामकी सींक रखी जाय वे शलाका पुरुष । इनमें प्रायः वे सभी अवतारी, पूज्य एवं प्रतापी पुरुष आ जाते हैं जिन्हें वैदिक परम्परामें भी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है । वे हैं चक्रवर्ती, वसुदेव, नारायण व इनके महाबलशाली शत्रु भी । किन्तु जिन्हें जैन धर्म व साहित्यमें विशेष रूपसे धर्मकी व्यवस्थाओं की स्थापना के लिए उच्च स्थान दिया गया है, वे हैं ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकर । सभी व अनेक तीर्थंकरों व अन्य तिरेसठ शलाका पुरुषोंके वंशों व जीवन वृत्तोंका वर्णन करनेवाले ग्रन्थोंको महापुराण माना गया है, और जिन ग्रन्थों में केवल एक-एक मात्र महापुरुषोंका वृत्तान्त हो उन्हें पुराण या चरितकी संज्ञा दी गयी है । चरितोंमें प्रायः उन छन्द, रस, भाव अलंकार आदि गुणों का समावेश करने का भी प्रयत्न किया गया है जिन्हें साहित्य- शास्त्रियोंने काव्यगुण कहा है। इस कारण इन चरित ग्रन्थोंने काव्य या महाकाव्य की संज्ञा भी प्राप्त की है । ये रचनाएँ साहित्यकी उत्कृष्ट उपलब्धियाँ मानी जाती हैं । जब हम प्राचीनसे लेकर अर्वाचीन जैन साहित्यको कालक्रमके अनुसार देखते हैं तब हमें यह भी ज्ञात हो जाता है कि इन काव्यमय महान् व विशाल पुराणों व चरितोंका विकास किस प्रकार हुआ। ऊपर कहा जा चुका है कि धर्मके व्याख्यानों व उपदेशों को विशेष स्पष्ट, रोचक व हृदयग्राही बनानेके लिए कथाओंका उपयोग आदिसे ही किया जाता रहा है । सामान्य मनुष्योंकी दृष्टिको धर्मको ओर मोड़ने, अर्थात् मिथ्यादृष्टिको सम्यग्दृष्टि बनाने हेतु इन कथाओंका सर्व प्रथम योगदान था। इसी कारण इस कथानक-वर्णन
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