________________
II
चन्द्रप्रमचरितम्
हुआ है, क्योंकि उसमें वैयक्तिक घटनाएं बहुत कम हुआ करती हैं, मुख्यतासे उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान
और निर्वाण इन पाँच कल्याणकोंके वणनकी प्रधानता रहती है। फिर भी ऐसा नहीं है कि यह वर्णन कहींससाका तैसा रख दिया गया हो। उसमें कविकी अपनी मौलिकता स्पष्ट दिखाई देती है. जिससे वह समस्त विवरण नीरस नहीं किन्तु बहुत सरस पाया जाता है। कविने अपनेसे पूर्वकालीन रचनाओं, जैसे पद्मपुराण, हरिवंश पुराण तथा आदि और उत्तर पुराणमें वर्णित चन्द्रप्रभके जीवनवृत्तको अपना आधार बनाया है। फिर भी रचना-शैली व काव्यकी दृष्टिसे यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने उनकी नकल की है । यथार्थतः उनकी रचनामें उक्त पूर्व रचनाओंकी शाब्दिक छाया प्रायः बिल्कुल ही नहीं पायी जाती।
इस चरित या काव्यके रचयिता वीरनन्दिका जैन मुनि-परम्परामें बहुत ऊंचा स्थान है। यह इसी बातसे सिद्ध है कि गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने अपनेको.उनका 'वत्स' कहा है तथा पार्श्वनाथ चरितके कर्ता वादिराज सूरिने उनकी भारतीको कुमुदतीके समान 'चन्द्र प्रभाभिसम्बद्ध,' 'रसपुष्ट'
और 'मनःप्रिय' कहकर स्मरण किया है। इसपर टीका और पंजिका भी लिखी गयी, तथा उसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां उत्तरसे दक्षिण भारत तक शास्त्रभण्डारोंमें पायी जाती है। ये इस रचनाके लोकप्रियता व प्रचार के प्रमाण हैं।
यह ग्रन्थ पहले भी एक बार मुद्रित हो चुका था, और उसका एक अनुवाद भी छप चुका था । किन्तु वे प्रकाशन न तो इस युगके विद्वत्समाजकी आलोचनात्मक रुचिके अनकल थे और न अब उनकी प्रतियां ही उपलब्ध थीं। ऐसी अवस्थामें यह आवश्यक समझा गया कि इस प्राचीन रचनाका एक अच्छा संस्करण तैयार कराकर प्रकाशमें लाया जाये। बड़ी प्रसन्नताकी बात है कि इसका यथेष्ट रीतिसे सम्पादन और अनुवाद पं० अमृतलालजी शास्त्रीने बड़े प्रयासपूर्वक सम्पन्न किया। उन्होंने पूर्वमुद्रित पाठको भी अपने सम्मुख रखा तथा विविध स्थानोंसे प्राप्त भिन्न-भिन्न कालीन सात हस्तलिखित प्रतियोंका मिलान करते हुए पाठ-शोधन किया एवं उन प्रतियों के पाठान्तर भी संकलित कर पाद-टिप्पण रूपसे दे दिये। उनका अनुवाद भी भावानुवाद होते हुए भी मूल रचनाके साथ पूर्ण न्याय करता है । और भाषाकी दष्टिसे भी परिमार्जित एवं धारावाही है जिससे मूल आख्यान व वर्णन ही नहीं, किन्तु उसकी काव्य-कलाका भी पाठकको पर्याप्त मात्रामें रसास्वादन मिल सकता है। उन्होंने ग्रन्थकी प्राचीन टीका एवं पंजिकाका भी उनकी अनेक उपलभ्य प्राचीन प्रतियोंपरसे उद्धारकर प्रस्तुत संस्करणमें समावेश कर दिया है। उन्होंने अपनी ३३ पृष्ठकी प्रस्तावनामें सम्पादन-सामग्री, ग्रन्थकार और रचना तथा टीका व पंजिकाके विषयमें सभी ज्ञातव्य बातोंका विवेचन कर दिया है, तथा परिशिष्टोंमें 'मूल रचनाके पद्यों, व्याख्या व पंजिकामें उद्धत अवतरणों एवं उनके विशिष्ट शब्दोंकी अनुक्रमणिकाएँ भी संलग्न कर दी हैं। इस प्रकार इस महाकाव्यका प्रस्तुत संस्करण सर्वांग परिपूर्ण कहा जा सकता है जिसके लिए प्रधान सम्पादक पं० अमृतलाल शास्त्रीके अनुगृहीत हैं ।
हमें बारम्बार कहना पड़ता है और कहे बिना रहा भी नहीं जाता कि जिस जैन-संस्कृति-संरक्षकसंघ द्वारा संचालित जीवराज ग्रन्थमालामें इस ग्रन्थका प्रकाशन हो रहा है उसके संस्थापक स्वर्गीय जीव. राज गौतमचन्दजी दोशीको धार्मिक भावना उनके द्वारा संगठित ट्रस्टके सदस्यों व अधिकारियोंको निरन्तर प्रेरित करती रहती है जिसके फलस्वरूप प्राचीन जैन साहित्यके ऐसे अनुपम रत्नोंको खोजकर उत्तम रीतिसे प्रकाशमें लाया जा रहा है। उक्त ट्रस्टके अध्यक्ष श्रीमान् लालचन्द हीराचन्द व मन्त्री श्री बालचन्द देवचन्द शाहके हम विशेष रूपसे कृतज्ञ है कि वे इस ग्रन्थमालाकी उन्नति और विकासको ... व जागरूक रहते हैं। मैसर
आ० ने० उपाध्ये बालाघाट
हीरालाल जैन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org