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________________ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका कारण होता है । वही प्रमाण है । प्रमाणके इस सामान्य लक्षणमें विवाद न होने पर भी प्रमाके करणके विषयमें विवाद है । ७८ बौद्ध सारूप्य ( तदाकारता) और योग्यताको प्रमितिका करण मानते हैं । नैयायिक-वैशेषिक इन्द्रिय और इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को, प्राभाकर ज्ञाताके व्यापारको और मीमांसक इन्द्रियको प्रमाका करण मानते हैं । किन्तु जैन ज्ञानको ही प्रमाका करण मानते हैं । क्योंकि जाननेरूप क्रिया अथवा अज्ञाननिवृत्तिरूप क्रियाका साधकतम कारण चेतन ज्ञान ही हो सकता है, अचेतन सन्निकर्षादि नहीं । अज्ञानकी निवृत्तिमें अज्ञानका विरोधी ज्ञान ही करण हो सकता है, जैसे कि अन्धकारकी निवृत्तिमें अज्ञानका विरोधी प्रकाश कारण होता है । यतः प्रमाण हित प्राप्ति और अहित परिहार करने में समर्थ है, अतः वह ज्ञान ही हो सकता है' । बौद्धदर्शनमें अज्ञात अर्थके ज्ञापक ज्ञानको प्रमाण माना गया है । दिग्नागने विषयाकारको प्रमाण तथा स्वसंवित्तिको प्रमाणका फल माना है । धर्मकीर्तिने न्यायबिन्दुमें अर्थसारूप्यको प्रमाण तथा अर्थप्रतीतिको फल कहा है। इसके साथ ही धर्मकीर्तिने प्रमाणके लक्षण में 'अविसंवादि' पदको जोड़कर दिग्नाग द्वारा प्रतिपादित लक्षणका हो समर्थन किया है । तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने सारूप्य और योग्यताको प्रमाण माना है तथा विषयकी अधिगति (ज्ञान) और स्वसंवित्तिको फल कहा है । मोक्षाकर गुप्तने अपनी तर्कभाषामें अपूर्व अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहा है" । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि बौद्धदर्शनमें ज्ञानको ही प्रमाण माना गया है, अज्ञानको नहीं । उनके यहाँ एक ही ज्ञान प्रमाण और फल दोनों होता है । यतः वह जिस विषयसे उत्पन्न होता है उसके દ 19 १. हिताहितप्राप्तिसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । २. अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणम् ३. स्वसंवित्तिः फलं चात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥ ४. अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् । तदेव च प्रत्यक्षं रूपत्वात् । ---परीक्षामुख १।२ --प्रमाणसमुच्चयटीका पृ० ११ ५. प्रमाणमविसंवादिज्ञानमज्ञातार्थप्रकाशो वा । ६. विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥ ७. प्रमाणं सम्यग्ज्ञानमपूर्वगोचरम् । Jain Education International --प्रमाणसमुच्चय पृ० २४ ज्ञानं प्रमाणफलमर्थप्रतीतिन्यायबिन्दु पृ० १८ प्रमाणवा० १।३ For Private & Personal Use Only तत्त्वसंग्रह का० १३४४ तर्कभाषा पृ० १ www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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