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प्रस्तावना अतः आत्मा कर्मोंका नाश हो जाने पर सर्वज्ञ और वीतराग होजाता है। सर्वज्ञ होनेसे उसके वचनोंमें अज्ञानजन्य असत्यता नहीं रहती है । और वीतराग होनेसे राग, द्वेष, लोभादिजन्य असत्यता भी नहीं रहती है। तभी वह अन्य जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देने में समर्थ होता है। इसी लिए आचार्य समन्तभद्रने कहा है कि आप्तको नियमसे वीतरागी, सर्वज्ञ
और आगमका उपदेष्टा होना ही चाहिए। इसके विना आप्तता नहीं हो सकती है। इस प्रकार कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र आदि आचार्योंने एक मतसे त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों के ज्ञायकके रूपमें सर्वज्ञका आगम और युक्तिसे समर्थन किया है।
प्रमाण विमर्श
सामान्यरूपसे प्रमाणका लक्षण है-सम्यग्ज्ञान । जो ज्ञान सम्यक् अथवा समीचीन है वह प्रमाण कहलाता है। किन्तु आगमिक परम्परामें ज्ञानको सम्यक तथा मिथ्या माननेका आधार दार्शनिक परम्परासे भिन्न है। आगमिक परम्परामें सम्यग्दर्शनसे सहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और मिथ्यादर्शनसे युक्त ज्ञान मिथ्याज्ञान है। मिथ्यादृष्टि जीवका ज्ञान व्यवहारमें सत्य होने पर भी आगमकी दृष्टि में मिथ्या है । परन्तु दार्शनिक परम्परामें ज्ञानके द्वारा प्रतिभासित विषयका अव्यभिचारी होना ही प्रमाणताकी कसौटी है। यदि ज्ञानके द्वारा प्रतिभासित पदार्थ उसीरूपमें मिल जाता है जिसरूपमें ज्ञानने उसे जाना था तो अविसंवादी होनेसे वह ज्ञान प्रमाण है और इससे भिन्न ज्ञान अप्रमाण है । आगममें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानोंको सम्यग्ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि (विभंग) इन तीन ज्ञानोंको मिथ्याज्ञान कहा है। और तत्त्वार्थसूत्रकारने संभवतः सबसे पहले सम्यग्ज्ञानके लिए प्रमाण शब्दका प्रयोग किया है।
प्रमाण का स्वरूप
प्रमाणका सामान्यरूपसे व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। दूसरे शब्दोंमें 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' प्रमाके करण अर्थात् साधकतम कारण (साधकतमं कारणं करणम्) को प्रमाण कहा गया है। वस्तुके यथार्थ ज्ञानको प्रमा या प्रमिति कहते हैं। और उस प्रमाकी उत्पत्ति में जो विशिष्ट
१. यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ।
-सिद्धिवि० ११२०
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