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________________ प्रस्तावना आकार हो जाता है और उस विषयका ज्ञान भी करता है, अतः विषयाकारका नाम प्रमाण और विषयकी अधिगतिका नाम फल है। ___ यहाँ यह विचारणीय है कि ज्ञानमें विषयाकारता संभव है या नहीं। यद्यपि ज्ञानगत सारूप्य ज्ञानस्वरूप ही है, फिरभी ज्ञानका विषयाकार होना एक जटिल समस्या है। क्योंकि अमूर्तिक ज्ञानका मूर्तिक पदार्थके आकार होना सम्भव नहीं है। तथा विषयाकारको प्रमाण माननेसे संशय और विपर्यय ज्ञानको भी प्रमाण मानना पड़ेगा। क्योंकि वे ज्ञान भी तो विषयाकार होते हैं। सांख्योंने श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्ति (व्यापार को प्रमाण माना है। किन्तु इन्द्रियवृत्तिको प्रमाण मानना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ अचेतन हैं । और इन्द्रियोंके अचेतन होनेसे उनका व्यापार भो अचेतन और अज्ञानरूपही होगा। अत: अज्ञानरूप व्यापार प्रमाका साधकतम कारण नहीं हो सकता है। न्यायदर्शनमें न्यायसूत्रके भाष्यकार वात्स्यायनने उपलब्धि-साधनको प्रमाण कहा है । उद्योतकरने भी उपलब्धिके साधनको ही प्रमाण स्वीकार किया है । जयन्तभट्टने प्रमाके करणको प्रमाण कहा है । उदयनाचार्यने यथार्थ अनुभवको प्रमाण माना है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उदयनके पहले न्यायदर्शनमें अनुभव पद दृष्टिगोचर नहीं होता है। वैशेषिकदर्शनमें सर्वप्रथम कणादने प्रमाणके सामान्य लक्षणका निर्देश किया है। उन्होंने दोषरहित ज्ञानको विद्या (प्रमाण) कहा है। कणादके बाद वैशेषिकदर्शनके अनुयायियोंने प्रमाके करणको ही प्रमाण माना है। इसप्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शनमें प्रमाके करणको प्रमाण माना गया है। तथा प्रत्यक्ष प्रमाके करण तीन माने गये हैं"-इन्द्रिय, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष और ज्ञान । १. इन्द्रियवृत्तिः प्रमाणम् । योगदर्शन-व्यासभाष्य पृ० २७ २. उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि । न्यायभाष्य पृ० १८ ३. उपलब्धिहेतुः प्रमाणम् । न्यायवार्तिक पृ० ५ ४. प्रमाकरणं प्रमाणम् । न्यायमंजरी पु० २५ ५. यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते । न्यायकुसुमा० ४१ ६. अदुष्टं विद्या। वैशेषिकसूत्र ९।२।१२ ७. तस्याः करणं त्रिविधम्-कदाचिदिन्द्रियम्, कदाचिदिन्द्रियार्थसन्निकर्षः, .. कदाचिज्ज्ञानम् । तकभाषा पृ० १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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