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प्रस्तावना
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्रकी कुछ दार्शनिक उपलब्धियोंका संक्षेपमें दिग्दर्शन कराया गया है। वास्तवमें उन्होंने एक युगपुरुषके रूपमें दर्शनके क्षेत्रमें अनेक उपलब्धियाँ प्रस्तुत करके अपने उत्तरवर्ती दार्शनिकोंके लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया था। यही कारण है कि समन्तभद्रने जिन बातोंको सूत्ररूपमें कहा था उन्हीं बातोंका उनके उत्तरवर्ती अकलंक, विद्यानन्द आदि आचार्योंने उनकी वाणीको हृदयङ्गम करके भाष्य या टीकाके रूपमें विस्तारसे विवेचन किया है।
अष्टशतीके रचयिता आचार्य अकलङ्क अकलङ्कका व्यक्तित्व
जैनन्यायके प्रतिष्ठापक अकलङ्क एक युगप्रधान आचार्य हुए हैं । बौद्धदर्शनमें धर्मकीर्तिका और मीमांसादर्शनमें कुमारिल भट्टका जो स्थान है वही स्थान जैनदर्शनमें अकलंक देवका है। आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनके बाद अकलङ्कने जैनन्यायको सुप्रतिष्ठित किया है। इसीलिए उनके नामके आधार पर जैनन्यायको अकलङ्कन्याय भी कहा जाता है । आचार्य समन्तभद्रके सूत्ररूप वचनोंके आधार पर अकलंक देवने जैन न्याय और प्रमाणशास्त्रकी पूर्णरूपसे प्रस्थापना की है। वे इनके लिए स्याद्वादपुण्योदधिप्रभावक, भव्यैकलोकनयन और स्याद्वादवर्त्मपरिपालक के रूपमें श्रद्धेय रहे हैं, और उनके द्वारा प्रदर्शित मार्गपर चलकर इन्होंने अकलंकन्यायका भव्य भवन निर्मित किया है। तथा इनके द्वारा मान्य व्यवस्थामें उत्तरवर्ती किसी भी आचार्य ने किसी भी प्रकारके परिवर्तनकी आवश्यकता अनुभव नहीं की।
अकलंक इतने प्रसिद्ध और प्रभावशाली आचार्य हुए हैं कि इनकी प्रशंसा और स्तुति अनेक ग्रन्थों और शिलालेखोंमें पायी जाती है । न्यायकुमुदचन्द्रके तृतीय परिच्छेदके अन्तमें आचार्य प्रभाचन्द्रने इन्हें समस्त अन्यमतवादिरूपी गजेन्द्रोंका दर्प नष्ट करने वाला सिंह बतलाया है। अष्टसहस्रीके टिप्पणकार लघु समन्तभद्रने लिखा है कि सम्पूर्ण तार्किक १. इत्थं समस्तमतवादिकरीन्द्रदर्पमुन्मूलयन्नमलमानदृढप्रहारैः ।
स्याद्वादकेसरसटाशततीव्रमूर्तिः पञ्चाननो भुवि जयत्यकलंकदेवः ॥ २. सकलतार्किकचक्रचूडामणिमरीचिमेचकितचरणनखकिरणो भगवान् भट्टाकलंकदेवः ।
-अष्टस० टिप्पण पृ० १
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