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________________ ४० आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका धर्मकी अपेक्षासे सात प्रकारसे किया जा सकता है। यतः वस्तुमें अनन्त धर्म हैं, अतः उन अनन्त धर्मोंकी अपेक्षासे प्रत्येक वस्तुमें अनन्त सप्तभंगियाँ बन सकती हैं। अनेकान्तमें अनेकान्तकी योजना ___ सर्वप्रथम समन्तभद्रने ही अनेकान्तमें भी अनेकान्तकी योजना की है। जब उनसे कहा गया कि सब पदार्थांके अनेकान्तात्मक होनेसे अनेकान्तको भी अनेकान्तरूप होना चाहिए तो उन्होंने उत्तर दिया कि प्रमाण और नयकी अपेक्षासे अनेकान्तमें भी अनेकान्त पाया जाता है। अर्थात् अनेकान्त सर्वथा अनेकान्त नहीं है, किन्तु कथंचित् एकान्त और कथंचित् अनेकान्त है। प्रमाणदृष्टिसे जब समग्र वस्तुका विचार किया जाता है तब वह अनेकान्त कहलाता है। और नयदष्टिसे जब वस्तुके किसी एक धर्मका विचार किया जाता है तब वही एकान्त हो जाता है। सर्वोदय तीर्थ वर्तमान समयमें सर्वोदयका नाम बहुत सुना जाता है। गांधीयुगमें भी सर्वोदयका बहुत प्रचार हुआ। किन्तु इस बातको कम ही लोग जानते हैं कि गांधीजीसे सत्रह सौ वर्ष पहले उत्पन्न हए आचार्य समन्तभद्रने वास्तविक सर्वोदयके सिद्धान्तको जनताके समक्ष रखते हुए भगवान् महावीरके तीर्थको सर्वोदय तीर्थ कहा था। सर्वोदयका अर्थ है कि जिसके द्वारा सबका उदय, अभ्युदय या उन्नति हो। किसी भी तीर्थको सर्वोदयी होनेके लिए आवश्यक है कि उसका आधार समता और अहिंसा हो। भगवान् महावीरका शासन ऐसा ही था। उनके शासन में जाति, कुल, वर्ण आदिके भेदभावके बिना सब मनुष्योंको ही नहीं किन्तु प्राणिमात्रको धर्मसाधन करने तथा आत्म विकास करनेका समान अवसर प्राप्त है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहके सिद्धान्तों द्वारा सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रमें भी सर्वोदयके सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया गया है। इन बातोंके अतिरिक्त सर्वोदयके लिए और क्या चाहिए। १. अनेकान्तेऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ स्वयम्भूस्तोत्र १०३ १. सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपक्षम् ।। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव ।। युक्त्यनुशासन ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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